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उत्तराध्ययन- १४/४४५
की ओर आकृष्ट हुआ, फलतः संसारचक्र से मुक्ति पाने के लिए वे कामगुणों से विरक्त हुए । [४४६] यज्ञ-यागादि कर्म में संलग्न ब्राह्मण के ये दोनों प्रिय पुत्र अपने पूर्वजन्म तथा तत्कालीन सुचीर्ण तप-संयम को स्मरण कर विरक्त हुए
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[४४७-४४८] मनुष्य तथा देवता-सम्बन्धी काम भोगों में अनासक्त मोक्षाभिलाषी, श्रद्धासंपन्न उन दोनों पुत्रों ने पिता के समीप आकर कहा - "जीवन की क्षणिकता को हमने जाना है, वह विघ्न वाधाओं से पूर्ण है, अल्पायु है । इसलिए घर में हमें कोई आनन्द नहीं मिल रहा है । अतः आपकी अनुमति चाहते हैं कि हम मुनिधर्म का आचरण करें ।”
[४४९-४५०] यह सुनकर पिता ने कुमार-मुनियों की तपस्या में वाधा उत्पन्न करने वाली यह बात की कि “पुत्रो ! वेदों के ज्ञाता कहते हैं - जिनको पुत्र नहीं होता है, उनकी गति नहीं होती है ।" "हे पुत्रो, पहले वेदों का अध्ययन करो, ब्राह्मणों को भोजन दो और विवाह कर स्त्रियों के साथ भोग भोगो । अनन्तर पुत्रों को घर का भार सौंप कर अरण्यवासी प्रशस्त - श्रेष्ठ मुनि बनना ।"
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[४५१-४५२] अपने रागादि-गुणरूप इन्धन से प्रदीप्त एवं मोहरूप पवन से प्रज्वलित शोकानि के कारण जिसका अन्तःकरण संतप्त तथा परितप्त है, जो मोहग्रस्त होकर अनेक प्रकार के बहुत अधिक दीनहीन वचन बोल रहा है- जो बार-बार अनुनय कर रहा है, धन का और क्रमप्राप्त काम भोगों का निमन्त्रण दे रहा है, उस अपने पिता पुरोहित को कुमारों ने अच्छी तरह विचार कर कहा
अधिक दुःख और थोड़ा
।" - " जो कामनाओं
[ ४५३ - ४५६ ] “पढ़े हुए वेद भी त्राण नहीं होते हैं । यज्ञ-यागादि के रूप में पशुहिंसा के उपदेशक ब्राह्मण भी भोजन कराने पर तमस्तम स्थिति में ले जाते हैं । औरस पुत्र भी रक्षा करनेवाले नहीं हैं । अतः आपके उक्त कथन का कौन अनुमोदन करेगा ?” "ये काम - भोग क्षण भर के लिए सुख, तो चिरकाल तक दुःख देते हैं, सुख देते हैं । संसार से मुक्त होने में बाधक हैं, अनर्थों की खान हैं से मुक्त नहीं है, वह अतृप्ति के ताप से जलता हुआ पुरुष रात दिन भटकता है और दूसरों के लिए प्रमादाचरण करनेवाला वह धन की खोज में लगा हुआ एक दिन जरा और मृत्यु को प्राप्त हो जाता है ।" "यह मेरे पास है, यह नहीं है । यह मुझे करना है, यह नहीं करना है - इस प्रकार व्यर्थ की बकवास करनेवाले व्यक्ति को अपहरण करने वाली मृत्यु उठा लेती है । उक्त स्थिति होने पर भी प्रमाद कैसा ?”
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[ ४५७] पिता - " जिसकी प्राप्ति के लिए लोग तप करते हैं, वह विपुल धन, स्त्रियां, स्वजन और इन्द्रियों के मनोज्ञ विषयभोग-तुम्हें यहां पर ही स्वाधीन रूप से प्राप्त हैं । फिर परलोक के इन सुखों के लिए क्यों भिक्षु बनते हो ?”
[ ४५८ ] पुत्र- " जिसे धर्म की धरा को वहन करने का अधिकार प्राप्त है, उसे धन, स्वजन तथा ऐन्द्रियिक विषयों का क्या प्रयोजन ? हम तो गुणसमूह के धारक, अप्रतिबद्धविहारी, शुद्ध भिक्षा ग्रहण करनेवाले श्रमण बनेंगे ।”
[४५९] – “पुत्रो ! जैसे अरणि में अग्नि, दूध में घी, तिलों में तेल असत् होता है, उसी प्रकार शरीर में जीव भी असत् होता है, शरीर का नाश होने पर जीव का कुछ भी अस्तित्व नहीं रहता ।"