SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 79
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद [४६०-४६२] - " आत्मा अमूर्त है, अतः वह इन्द्रियों के द्वारा ग्राह्य नहीं है । जो अमूर्त भाव होता है, वह नित्य होता । आत्मा के आन्तरिक रागादि हेतु ही निश्चित्त रूप से बन्ध के कारण हैं । और बन्ध को ही संसार का हेतु कहा है ।" "जब तक हम धर्म के अनभिज्ञ थे, तब तक मोहवश पाप कर्म करते रहे, आपके द्वारा हम रोके गए और हमारा संरक्षण होता रहा । किन्तु अब हम पुनः पाप कर्म का आचरण नहीं करेंगे ।" - " लोक आहत है । चारों तरफ से घिरा है । अमोघा आ रही हैं । इस स्थिति में हम घर में सुख नहीं पा रहे हैं ।" ७८ [४६३] – “पुत्रो ! यह लोक किससे आहत है ? किससे घिरा हुआ है ? अमोघा किसे कहते हैं ? यह जानने के लिए मैं चिन्तित हूँ ।" [४६४-४६६] – “पिता ! आप अच्छी तरह जान ले कि यह लोक मृत्यु से आहत है, जरा से घिरा हुआ है । और रात्रि को अमोघा कहते हैं ।" - " जो जो रात्रि जा रही है, वह फिर लौट कर नहीं आती । अधर्म करने वाले की रात्रियां निष्फल जाती हैं ।" "जो जो रात्रि जा रही है, वह फिर लौट कर नहीं आती । धर्म करनेवाले की रात्रियां सफल होती हैं ।" - [ ४६७ ] – “पुत्रो, पहले हम सब कुछ समय एक साथ रह कर सम्यक्त्व और व्रतों से युक्त हों । पश्चात् ढलती आयु में दीक्षित होकर घर-घर से भिक्षा ग्रहण करते हुए विचरेंगे।" [ ४६८- ४६९] - जिसकी मृत्यु के साथ मैत्री है, जो मृत्यु के आने पर दूर भाग सकता है, अथा जो यह जानता है कि मैं कभी मरूंगा ही नहीं, वही आने वाले कल की आकांक्षा कर सकता है ।" "हम आज ही राग को दूर करके श्रद्धा से युक्त मुनिधर्म को स्वीकार करेंगे, जिसे पाकर पुनः इस संसार में जन्म नहीं लेना होता है । हमारे लिए कोई भी भोग अभुक्त नहीं है, क्योंकि वे अनन्त बार भोगे जा चुके हैं । [४७०-४७१] प्रबुद्ध पुरोहित - " वाशिष्ठि ! पुत्रों के बिना इस घर में मेरा निवास नहीं हो सकता । भिक्षाचर्या का काल आ गया है । वृक्ष शाखाओं से ही सुन्दर लगता है । शाखाओं के कट जाने पर वह केवल ठूंठ है ।” “पंखों से रहित पक्षी, सेना से रहित राजा, जलपोत पर धन-रहित व्यापारी जैसे असहाय होता है वैसे ही पुत्रों के बिना मैं भी असहाय हूँ ।" [४७३] पुरोहित पत्नी- “सुसंस्कृत एवं सुसंगृहीत कामभोग रूप प्रचुर विषयरस जो हमें प्राप्त हैं, उन्हें पहले इच्छानुरूप भोग लें । उसके बाद हम मुनिधर्म के प्रधान मार्ग पर चलेंगे।" [४७२] पुरोहित - " भवति ! हम विषयरसों को भोग चुके हैं । युवावस्था हमें छोड़ रही है । मैं जीवन के प्रलोभन में भोगों को नहीं छोड़ रहा हूँ । लाभ - अलाभ, सुख-दुख को समदृष्टि से देखता हुआ मैं मुनिधर्म का पालन करूंगा ।" [४७४] पुरोहित-पत्नी- “प्रतिस्रोत में तैरने वाले बूढ़े हंस की तरह कहीं तुम्हें फिर अपने बन्धुओं को याद न करना पड़े ? अतः मेरे साथ भोगों को भोगो । यह भिक्षाचर्या और यह ग्रामानुग्राम विहार काफी दुःखरूप है ।" [४७५-४७६] पुरोहित - " भवति ! जैसे सांप अपने शरीर की केंचुली को छोड़कर मुक्तमन से चलता है, वैसे ही दोनों पुत्र भोगो को छोड़ कर जा रहे हैं । अतः मैं क्यों न उनका
SR No.009790
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy