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उत्तराध्ययन-११/३४७
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[३४७] जैसे तीक्ष्ण दाढ़ों वाला पूर्ण युवा एवं दुष्पराजेय सिंह पशुओं में श्रेष्ठ होता है, वैसे बहुश्रुत भी अन्य तीर्थकों में श्रेष्ठ होता है ।
[३४८] जैसे शंख, चक्र और गदा को धारण करनेवाला वासुदेव अपराजित बलवाला योद्धा होता है, वैसे बहुश्रुत भी अपराजित बलशाली होता है ।
[३४९] जैसे महान ऋद्धिशाली चातुरन्त चक्रवर्ती चौदह रत्नों का स्वामी होता है, वैसे ही बहुश्रुत भी चौदह पूर्वो की विद्या का स्वामी होता है ।
[३५०] जैसे सहस्रचक्षु, वज्रपाणि, पुरन्दर शक्र देवों का अधिपति होता है, वैसे बहुश्रुत भी होता है ।
[३५१] जैसे अन्धकार का नाशक उदीयमान सूर्य तेज से जलता हुआ-सा प्रतीत होता है, उसी प्रकार बहुश्रुत भी तेजस्वी होता है ।
[३५२] जैसे नक्षत्रों के परिवार से परिवृत, चन्द्रमा पूर्णिमा को परिपूर्ण होता है, उसी प्रकार बहुश्रुत भी ज्ञानादि की कलाओं से परिपूर्ण होता है ।
[३५३] जिस प्रकार व्यापारी आदि का कोष्ठागार सुरक्षित और अनेक प्रकार के धान्यों से परिपूर्ण होता है, उसी प्रकार बहुश्रुत भी नाना प्रकार के श्रुत से परिपूर्ण होता है ।
[३५४] 'अनादृत' देवका 'सुदर्शन' नामक जम्बू वृक्ष जिस प्रकार सब वृक्षों में श्रेष्ठ होता है, वैसे ही बहुश्रुत सब साधुओं में श्रेष्ठ होता है ।
[३५५] जिस प्रकार नीलवंत वर्षधर पर्वत से निकली हुई जलप्रवाह से परिपूर्ण, समुद्रगामिनी सीता नदी सब नदियो में श्रेष्ठ है, इसी प्रकार बहुश्रुत भी सर्वश्रेष्ठ होता है ।
[३५६] जैसे कि नाना प्रकार की औषधियों से दीप्त महान् मंदर-मेरु पर्वत सब पर्वतों में श्रेष्ठ है, ऐसे ही बहुश्रुत सब साधुओं में श्रेष्ठ होता है ।
[३५७] जिस प्रकार सदैव अक्षय जल से परिपूर्ण स्वयंभूरमण समुद्र नानाविध रत्नों से परिपूर्ण रहता है, उसी प्रकार बहुश्रुत भी अक्षय ज्ञान से परिपूर्ण होता है ।
३५८] समुद्र के समान गम्भीर, दुरासद, अविचलित, अपराजेय, विपुल श्रुतज्ञान से परिपूर्ण, त्राता-ऐसे बहुश्रुत मुनि कर्मों को क्षय करके उत्तम गति को प्राप्त हुए हैं ।
[३५९] मोक्ष की खोज करने वाला मुनि श्रुत का आश्रय ग्रहण करे, जिससे वह स्वयं को और दूसरों को भी सिद्धि प्राप्त करा सके । -ऐसा मैं कहता हूँ ।
(अध्ययन-१२-हरिकेशीय) [३६०] हरिकेशबल-चाण्डालकुल में उत्पन्न हुए थे, फिर भी ज्ञानादि उत्तम गुणों के धारक और जितेन्द्रिय भिक्षु थे ।
[३६१] वे ईर्या, एषणा, भाषा, उच्चार, आदान-निक्षेप-इन पाँच समितियों में यत्नशील समाधिस्थ संयमी थे ।
[३६२] मन, वाणी और काय से गुप्त जितेन्द्रिय मुनि, भिक्षा के लिए यज्ञमण्डप में गये, जहाँ ब्राह्मण यज्ञ कर रहे थे ।
[३६३] तप से उनका शरीर सूख गया था और उनके उपधि एवं उपकरण भी प्रान्त थे । उक्त स्थिति में मुनि को आते देखकर अनार्य उनका उपहास करने लगे ।