________________
दशवैकालिक-९/१/४१५
४१
(अध्ययन-९-विनयसमाधि)
उद्देशक-१ [४१५] (जो साधक) गर्व, क्रोध, माया और प्रमादवश गुरुदेव के समीप विनय नहीं सीखता, (उसके) वे (अहंकारादि दुर्गुण) ही वस्तुतः उस के ज्ञानादि वैभव बांस के फल के समान विनाश के लिए होता है ।
[४१६-४१७] जो गुरु की 'ये मन्द, अल्पवयस्क तथा अल्पश्रुत हैं' ऐसा जान कर हीलना करते हैं, वे मिथ्यात्व को प्राप्त करके गुरुओं की आशातना करते हैं । कई स्वभाव से ही मन्द होते हैं और कोई अल्वयस्क भी श्रुत और बुद्धि से सम्पन्न होते हैं । वे आचारवान्
और गुणों में सुस्थितात्मा आचार्य की अवज्ञा किये जाने पर (गुणराशि को उसी प्रकार) भस्म कर डालते हैं, जिस प्रकार इन्धनराशि को अग्नि ।
[४१८-४१९] जो कोई सर्प को 'छोटा बच्चा है' यह जान कर उसकी आशातना करता है, वह (सर्प) उसके अहित के लिए होता है, इसी प्रकार आचार्य की भी अवहेलना करने वाला मन्दबुद्धि भी संसार में जन्म-मरण के पथ पर गमन करता है । अत्यन्त क्रुद्ध हुआ भी आशीविष सर्प जीवन-नाश से अधिक और क्या कर सकता है ? परन्तु अप्रसन्न हुए पूज्यपाद आचार्य तो अबोधि के कारण बनते हैं, जिससे मोक्ष नहीं मिलता ।
[४२०-४२१] जो प्रज्वलित अग्नि को मसलता है, आशीविष सर्प को कुपित करता है, या जीवितार्थी होकर विषभक्षण करता है, ये सब उपमाएँ गुरुओं की आशातनता के साथ (घटित होती हैं) कदाचित् वह अग्नि न जलाए, कुपित हुआ सर्प भी न डसे, वह हलाहल विष भी न मारे; किन्तु गुरु की अवहेलना से (कदापि) मोक्ष सम्भव नहीं है ।
[४२२-४२३] जो पर्वत को सिर से फोड़ना चाहता है, सोये हुए सिंह को जगाता है, या जो शक्ति की नोक पर प्रहार करता है, गुरुओं की आशातना करने वाला भी इनके तुल्य है । सम्भव है, कोई अपने सिर से पर्वत का भी भेदन कर दे, कुपित हुआ सिंह भी न खाए अथवा भाले की नोंक भी उसे भेदन न करे; किन्तु गुरु की अवहेलना से मोक्ष (कदापि) सम्भव नहीं है ।
[४२४] आचार्यप्रवर के अप्रसन्न होने पर बोधिलाभ नहीं होता तथा (उनकी) आशातना से मोक्ष नहीं मिलता । इसलिए निराबाध सुख चाहनेवाला साधु गुरु की प्रसन्नता के अभिमुख होकर प्रयत्नशील रहे ।
[४२५] जिस प्रकार आहिताग्नि ब्राह्मण नाना प्रकार की आहुतियों और मंत्रपदों से अभिषिक्त की हुई अग्नि को नमस्कार करता है, उसी प्रकार शिष्य अनन्तज्ञान-सम्पन्न हो जाने पर भी आचार्य की विनयपूर्वक सेवा-भक्ति करे ।
[४२६] जिसके पास धर्म-पदों का शिक्षण ले, हे शिष्य ! उसके प्रति विनय का प्रयोग करो । सिर से नमन करके, हाथों को जोड़ कर तथा काया, वाणी और मन से सदैव सत्कार करो ।
[४२७] कल्याणभागी (साधु) के लिए लज्जा, दया, संयम और ब्रह्मचर्य; ये विशोधि के स्थान हैं । अतः जो गुरु मुझे निरन्तर शिक्षा देते हैं, उनकी मैं सतत पूजा करूं ।