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________________ आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद वचन से स्खलित हो जाएँ तो मुनि उनका उपहास न करे । [ ४०१] नक्षत्र, स्वप्नफल, वशीकरणादि योग, निमित्त, मन्त्र, भेषज आदि अयोग्य बातें गृहस्थों को न कहे; क्योंकि ये प्राणियों के अधिकरण स्थान हैं । ४० [४०२] दूसरों के लिए बने हुए, उच्चारभूमि से युक्त तथा स्त्री और पशु से रहित स्थान, शय्या और आसन का सेवन करे । [४०३] यदि उपाश्रय विविक्त हो तो केवल स्त्रियों के बीच धर्मकथा न कहे; गृहस्थों के साथ संस्तव न करे, साधुओं के साथ ही परिचय करे । [४०४] जिस प्रकार मुर्गे के बच्चे को बिल्ली से सदैव भय रहता है, इसी प्रकार ब्रह्मचारी को स्त्री के शरीर से भय होता है । [ ४०५ ] चित्रभित्ति अथवा विभूषित नारी को टकटकी लगा कर न देखे । कदाचित् सहसा उस पर दृष्टि पड़ जाए तो दृष्टि तुरंत उसी तरह वापस हटा ले, जिस तरह सूर्य पर पड़ी हुई दृष्टि हटा ली जाती है । [४०६] जिसके हाथ-पैर कटे हुए हों, जो कान और नाक से विकल हो, वैसी सौ वर्ष की नारी (के संसर्ग) का भी ब्रह्मचारी परित्याग कर दे । [४०७] आत्मगवेषी पुरुष के लिए विभूषा, स्त्रीसंसर्ग और स्निग्ध रस युक्त भोजन तालपुट विष के समान है । [४०८] स्त्रियों के अंग प्रत्यंग, संस्थान, चारु- भाषण और कटाक्ष के प्रति (साधु) ध्यान न दे, क्योंकि ये कामराग को बढ़ाने वाले हैं । [४०९] शब्द, रूप, रस, गन्ध और स्पर्श, इन पुद्गलों के परिणमन को अनित्य जान कर मनोज्ञ विषयों में रागभाव स्थापित न करे । [४१०] उन (इन्द्रियों के विषयभूत) पुद्गलों के परिणमन को जैसा है, वैसा जान कर अपनी प्रशान्त आत्मा से तृष्णारहित होकर विचरण करे । [ ४११] जिस (वैराग्यभावपूर्ण) श्रद्धा से घर से निकला और प्रव्रज्या को स्वीकार किया, उसी श्रद्धा से मूल-गुणों का अनुपालन करे । [ ४१२] (जो मुनि) इस तप, संयमयोग और स्वाध्याययोग में सदा निष्ठापूर्वक प्रवृत्त रहता है, वह अपनी और दूसरों की रक्षा करने में उसी प्रकार समर्थ होता है, जिस प्रकार सेना से घिर जाने पर समग्र साधुओं से सुसज्जित शूरवीर । [४१३] स्वाध्याय और सद्ध्यान में रत, त्राता, निष्पापभाव वाले (तथा) तपश्चरण में रत मुनि का पूर्वकृत कर्म उसी प्रकार विशुद्ध होता है, जिस प्रकार अग्नि द्वारा तपाए हुए रूप्य का मल । [४१४] जो (पूर्वोक्त) गुणों से युक्त है, दुःखों को सहन करने वाला है, जितेन्द्रिय है, श्रुत युक्त है, ममत्वरहित और अकिंचन है; वह कर्मरूपी मेघों के दूर होने पर, उसी प्रकार सुशोभित होता है, जिस प्रकार सम्पूर्ण अभ्रपटल से विमुक्त चन्द्रमा । - ऐसा मैं कहता हूँ । अध्ययन - ८ - का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
SR No.009790
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size9 MB
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