SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 40
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३९ दशवैकालिक-८/-/३८२ जितेन्द्रिय रहे । [३८३] मुनि महान् आत्मा आचार्य के वचन को सफल करे । वह उनके कथन को भलीभाँति ग्रहण करके कार्य द्वारा सम्पन्न करे । [३८४] जीवन को अध्रुव और आयुष्य को परिमित जान तथा सिद्धिमार्ग का विशेषरूप से ज्ञान प्राप्त करके भोगों से निवृत्त हो जाए । [३८५] अपने बल, शारीरिक शक्ति, श्रद्धा और आरोग्य को देख कर तथा क्षेत्र और काल को जान कर, अपनी आत्मा को धर्मकार्य में नियोजित करे । [३८६] जब तक वृद्धावस्था पीड़ित न करे, व्याधि न बढ़े और इन्द्रियाँ क्षीण न हों, तब तक धर्म का सम्यक् आचरण कर लो । [३८७] क्रोध, मान, माया और लोभ, पाप को बढ़ाने वाले है । आत्मा का हित चाहनेवाला इन चारों का अवश्यमेव वमन कर दे । [३८८] क्रोध प्रीति का, मान विनय का, माया मित्रता का और लोभ तो सब का नाश करनेवाला है । [३८९] क्रोध का 'उपशम' से, मान को मृदुता से, माया को सरलता से और लोभ पर संतोष के द्वारा विजय प्राप्त करे । [३९०] अनिगृहीत क्रोध और मान प्रवर्द्धमान माया और लोभ, ये चोरों संक्लिष्ट कषाय पुनर्जन्म की जडें सींचते हैं । [३९१] (साधु) रत्नाधिकों के प्रति विनयी बने, ध्रुवशीलता को न त्यागे । कछुए की तरह आलीनगुप्त और प्रलीनगुप्त होकर तप-संयम में पराक्रम करे । [३९२] साधु निद्रा को बहुमान न दे । अत्यन्त हास्य को वर्जित करे, पारस्परिक विकथाओं में रमण न करे, सदा स्वाध्याय में रत रहे । [३९३] साधु आलस्यरहित होकर श्रमणधर्म में योगों को सदैव नियुक्त करे; क्योंकि धर्म में संलग्न साधु अनुत्तर अर्थ को प्राप्त करता है । [३९४] जिस के द्वारा इहलोक और परलोक में हित होता है, सुगति होती है । वह बहुश्रुत ( मुनि) की पर्युपासना करे और अर्थ के विनिश्चय के लिए पृच्छा करे । [३९५] जितेन्द्रिय मुनि (अपने) हाथ, पैर और शरीर को संयमित करके आलीन और गुप्त होकर गुरु के समीप बैठे । के [३९६] आचार्य आदि के पार्श्वभाग में, आगे और पृष्ठभाग में न बैठे तथा गुरु समीप ऊरु. सटा कर (भी) न बैठे । [३९७] विनीत साधु बिना पूछे न बोले, (वे) बात कर रहे हों तो बीच में न बोले । चुगली न खाए और मायामृषा का वर्जन करे । [३९८] जिससे अप्रीति उत्पन्न हो अथवा दूसरा शीघ्र ही कुपित होता हो, ऐसी अहितकर भाषा सर्वथा न बोले । [३९९] आत्मवान् साधु दृष्ट, परिमित, असंदिग्ध, परिपूर्ण, व्यक्त, परिचित, अजल्पित और अनुद्विग्र भाषा बोले । [४००] आचारांग और व्याख्याप्रज्ञप्ति सूत्र के धारक एवं दृष्टिवाद के अध्येता साधु
SR No.009790
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy