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आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद
[३६२] मुनि वचन अथवा कर्म से त्रस प्राणियों की हिंसा न करे । समस्त जीवों की हिंसा से उपरत साधु विविध स्वरूप वाले जगत् को (विवेकपूर्वक) देखे 1
[३६३-३६६] संयमी साधु जिन्हें जान कर समस्त जीवों के प्रति दया का अधिकारी बनता है, उन आठ प्रकार के सूक्ष्मों को भलीभांति देखकर ही बैठे, खड़ा हो अथवा सोए । वे आठ सूक्ष्म कौन-कौन से हैं ? तब मेधावी और विचक्षण कहे कि वे ये हैं- स्नेहसूक्ष्म, पुष्पसूक्ष्म, प्राणिसूक्ष्म, उत्तिंग सूक्ष्म, पनकसूक्ष्म, बीजसूक्ष्म, हरितसूक्ष्म और आठवाँ अण्डसूक्ष्म । सभी इन्द्रियों के विषय में राग-द्वेष रहित संयमी साधु इसी प्रकार इन सूक्ष्म जीवों को सर्व प्रकार से जान कर सदा अप्रमत्त रहता हुआ यतना करे ।
[३६७ - ३६८] संयमी साधु सदैव यथासमय उपयोगपूर्वक पात्र, कम्बल, शय्या, उच्चारभूमि, संस्तारक अथवा आसन का प्रतिलेखन करे । उच्चार, प्रस्रवण, कफ, नाक का मैल और पसीना आदि डालने के लिए प्रासुक भूमि का प्रतिलेखन करके उनका ( यतनापूर्वक ) परिष्ठापन करे ।
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[३६९] पानी या भोजन के लिए गृहस्थ के घर में प्रवेश करके साधु यतना से खड़ा रहे, परिमित बोले और ( वहाँ के रूप में मन को डांवाडोल न करे ।
[३७०-३७१] भिक्षु कानों से बहुत कुछ सुनता है तथा आँखों से बहुत-से रूप (या (दृश्य) देखता है किन्तु सब देखे हुए और सुने हुए को कह देना उचित नहीं । यदि सुनी या देखी हुई (घटना औपघातिक हो तो नहीं कहनी तथा किसी भी उपाय से गृहस्थोचित आचरण नहीं करना ।
[३७२] पूछने पर अथवा बिना पूछे भी यह सरस (भोजन) है और यह नीरस है, यह (ग्राम आदि) अच्छा है और यह बुहा है, अथवा मिला या न मिला; यह भी न कहे । [ ३७३ - ३७६] भोजन में गृद्ध न हो, व्यर्थ न बोलता हुआ उञ्छ भिक्षा ले । (वह) अप्रासुक, क्रीत, औद्देशिक और आहृत आहार का भी उपभोग न करे । अणुमात्र भी सन्निधि न करे, सदैव मुधाजीवी असम्बद्ध और जनपद के निश्रित रहे, रूक्षवृत्ति, सुसन्तुष्ट, अल्प इच्छाबाला और थोड़े से आहार से तृप्त होने वाला हो । वह जिनप्रवचन को सुन कर आसुरत्व को प्राप्त न हो । कानों के लिए सुखकर शब्दों में रागभाव स्थापन न करे, दारुण और कर्कश स्पर्श को शरीर से (समभावपूर्वक ) सहन करे ।
[३७७] क्षुधा, पिपासा, दुःशय्या, शीत, उष्ण, अरति और भय को ( मुनि) अव्यथित होकर सहन करे; (क्योंकि) देह में उत्पन्न दुःख को समभाव से सहना महाफलरूप होता है । [ ३७८ ] सूर्य के अस्त हो जाने पर और सूर्य उदय न हो जाए तब तक सब प्रकार के आहारादि पदार्थों की मन से भी इच्छा न करे ।
[३७९-३८२] साधु तनतनाहट न करे, चपलता न करे, अल्पभाषी, मितभोजी और उदर का दमन करने वाला हो । थोड़ा पाकर निन्दा न करे । किसी जीव का तिरस्कार न करे । उत्कर्ष भी प्रकट न करे । श्रुत, लाभ, जाति, तपस्विता और बुद्धि से मद न करे । जानते हुए या अनजाने अधार्मिक कृत्य हो जाए तो तुरन्त उससे अपने आपको रोक ले तथा दूसरी बार वह कार्य न करे । अनाचार का सेवन करके उसे गुरु के समक्ष न छिपाए और न ही सर्वथा अपलाप करे; किन्तु सदा पवित्र प्रकट भाव धारण करनेवाला, असंसक्त एवं