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दशवैकालिक-५/१/९२
किन्तु प्रीतिकर कुल में प्रवेश करे ।
[९३] साधु-साध्वी, आज्ञा लिये बिना पर्दा तथा वस्त्रादि से ढंके हुए द्वार को स्वयं न खोले तथा कपाट को भी न उघाड़े ।
[१४] भिक्षा के लिए प्रविष्ट होने वाला साधु मल-मूत्र की बाधा न रखे । यदि बाधा हो जाए तो प्रासुक स्थान देख कर, गृहस्थ की अनुज्ञा लेकर मल-मूत्र का उत्सर्ग करे ।
[९५-९६] नीचे द्वार वाले घोर अन्धकारयुक्त कोठे, जिस कोठे में फूल, बीज आदि बिखरे हुए हों, तथा जो कोष्ठक तत्काल लीपा हुआ, एवं गीला देखे तो उस में प्रवेश न करे।
[९७] संयमी मुनि, भेड़, बालक, कुत्ते या बछड़े को लांघ कर अथवा हटा कर कोठे में प्रवेश न करे ।
[९८-९९] गोचरी के लिए घर में प्रविष्ट भिक्षु आसक्तिपूर्वक न देखे; अतिदूर न देखे, उत्फुल्ल दृष्टि से न देखे; तथा भिक्षा प्राप्त न होने पर बिना कुछ बोले लौट जाए । अतिभूमि न जाए, कुल की मर्यादित भूमि को जान कर मित भूमि तक ही जाए ।
[१००] विचक्षण साधु वहाँ ही उचित भूभाग का प्रतिलेखन करे, स्नान और शौच के स्थान की ओर दृष्टिपात न करे ।
[१०१-१०२] सर्वेन्द्रिय-समाहित भिक्षु (सचित्त) पानी और मिट्टी लाने के मार्ग तथा बीजों और हरित (हरी) वनस्पतियों को वर्जित करके खड़ा रहे । वहाँ खड़े हुए उस साधु को देने के लिए कोई गृहस्थ पान और भोजन लाए तो उसमें से अकल्पनीय को ग्रहण न करे, कल्पनीय ही ग्रहण करे ।
[१०३] यदि साधु या साध्वी के पास भोजन लाते हुए कोई-उसे नीचे गिराए तो साधु उस आहार का निषेध कर दे कि इस प्रकार का आहार मेरे लिए कल्पनीय नहीं है ।
[१०४] प्राणी, बीज और हरियाली को कुचलता हुऐ आहार लाने वाले को असंयमकारि जान कर उससे न ले ।
[१०५-१०६] इसी प्रकार एक बर्तन में से दूसरे बर्तन में डालकर, सचित्त वस्तु पर रखकर, सचित्त वस्तु का स्पर्श करके तथा सचित्त जल को हिला कर, अवगाहन कर, चलित कर, पान और भोजन लाए तो मुनि निषेध कर दे कि इस प्रकार का आहार मेरे लिए ग्रहण करना कल्प्य नहीं है ।
[१०७] पुराकर्म-कृत (साधु को आहार देने से पूर्व ही सचित्त जल से धोये हए) हाथ से, कड़छी से अथवा बर्तन से (मुनि को भिक्षा) देती हुई महिला को मुनि निषेध कर दे कि इस प्रकार का आहार मेरे लिए कल्पनीय (ग्रहण करने योग्य) नहीं है । (अर्थात्-मैं ऐसा दोषयुक्त आहार नहीं ले सकता ।)
[१०८] यदि हाथ या कडछी भीगे हुए हो, सचित्त जल से स्निग्ध हो, सचित्त रज, मिट्टी, खार, हरताल, हिंगलोक, मनःशील, अंजन, नमक तथा
[१०९] गेरु, पीलीमट्टी, सफेद मट्टी, फटकडी, अनाज का भुसा तुरंत का पीसा हुआ आटा, फल का टुकडा इत्यादि से लिप्त हो तो मुनि को नहीं कल्पता ।
[११०] जहाँ पश्चात्कर्म की संभावना हो, वहाँ असंसृष्ट हाथ, कड़छी अथवा बर्तन से दिये जाने वाले आहार को ग्रहण करने की इच्छा न करे ।