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आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
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(अध्ययन-५-पिडेषणा
उद्देशक-१ [७६] भिक्षा का काल प्राप्त होने पर असम्भ्रान्त और अमूर्छित होकर इस क्रम-योग से भक्त-पान की गवेषणा करे ।
[७७] ग्राम या नगर में गोचराग्र के लिए प्रस्थित मुनि अनुद्विग्न और अव्याक्षिप्त चित्त से धीमे-धीमे चले ।
[७८] आगे युगप्रमाण पृथ्वी को देखता हुआ तथा बीज, हरियाली, प्राणी, सचित्त जल और सचित्त मिट्टी को टालता हुआ चले ।
[७९] अन्य मार्ग के होने पर गड्ढे आदि, ऊबडखाबड़ भूभाग, ढूंठ और पंकिल मार्ग को छोड़ दे; तथा संक्रम के ऊपर से न जाए ।
[८०] उन गड्ढे आदि से गिरता हुआ या फिसलता हुआ त्रस या स्थावर जीवों की हिंसा कर सकता है ।
[८१] इसलिए सुसमाहित संयमी साधु अन्य मार्ग के होते हुए उस मार्ग से न जाए। यदि दूसरा मार्ग न हो तो यतनापूर्वक उस मार्ग से जाए ।
[८२] संयमी साधु अंगार, राख, भूसे और गोबर पर सचित्त रज से युक्त पैरों से उन्हें अतिक्रम कर न जाए ।
[८३] वर्षा बरस रही हो, कुहरा पड़ रहा हो, महावात चल रहा हो, और मार्ग में तिर्यञ्च संपातिम जीव उड़ रहे हों तो भिक्षाचरी के लिए न जाए ।
[८४] ब्रह्मचर्य का वशवर्ती श्रमण वेश्यावाड़े के निकट न जाए; क्योंकि दमितेन्द्रिय और ब्रह्मचारी साधक के चित्त में भी असमाधि उत्पन्न हो सकती है ।
[८५] ऐसे कुस्थान में बार-बार जाने वाले मुनि को उन वातावरण के संसर्ग से व्रतों की क्षति और साधुता में सन्देह हो सकता है ।
[८६] इसलिए इसे दुर्गतिवर्द्धक दोष जान कर एकान्त के आश्रव में रहने वाला मुनि वेश्यावाड़े के पास न जाए ।
[८७] मार्ग में कुत्ता, नवप्रसूता गाय, उन्मत्त बल, अश्व और गज तथा वालकों का क्रीड़ास्थान, कलह और युद्ध के स्थान को दूर से ही छोड़ कर गमन करे ।।
[८८] मुनि उन्नत मुंह, अवनत हो कर, हर्षित या आकुल होकर न चले (किन्तु) इन्द्रियों के विषय को दमन करके चले ।
[८९] उच्च-नीच कुल में गोचरी के लिए मुनि सदैव जल्दी-जल्दी तथा हँसी-मजाक करता हुआ और बोलता हुआ न चले ।
[९०] गोचरी के लिए जाता हुआ झरोखा, थिग्गल द्वार, संधि जलगृह, तथा शंका उत्पन्न करनेवाले अन्य स्थानों को भी छोड़ दे ।
[९१] राजा के, गृहपतियों के तथा आरक्षिकों के रहस्य के उस स्थान को दूर से ही छोड़ दे, जहाँ जाने से संक्लेश पैदा हो ।
[९२] साधु-साध्वी निन्दित कुल, मामक गृह और अप्रीतिकर कुल में प्रवेश न करे,