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दशवैकालिक-४/-/४७
[४७-५२] अयतनापूर्वक-१-गमन करनेवाला । अयतनापूर्वक-२-खड़ा होनेवाला-३. बैठनेवाला-४-सोनेवाला-५-भोजन करनेवाला-६-बोलनेवाला त्रस और स्थावर जीवों की हिंसा करता है । उससे पापकर्म का बन्ध होता है, जो उसके लिए कटु फल वाला होता है ।
[५३-५४] साधु या साध्वी कैसे चले ? कैसे खडे हो ? कैसे बैठे ? कैसे सोए ? कैसे खाए और कैसे बोले ?, जिससे कि पापकर्म का बन्धन हो ? यतनापूर्वक चले, खड़ा हो, बैठे, सोए, खाए और बोले, (तो वह) पापकर्म का बन्ध नहीं करता ।
[५५] जो सर्वभूतात्मभूत है, सब जीवों को सम्यग्दृष्टि से देखता है, तथा आश्रव का निरोध कर चुका है और दान्त है, उसके पापकर्म का बन्ध नहीं होता ।
[५६] 'पहले ज्ञान और फिर दया है'-इस प्रकार से सभी संयमी (संयम में) स्थित होते हैं । अज्ञानी क्या करेगा ? वह श्रेय और पाप को क्या जानेगा ?
[५७] श्रवण करके ही कल्याण को जानता है, पाप को जानता है । कल्याण और पाप-दोनों को जानता है, उनमें जो श्रेय है, उसका आचरण करता है ।
[५८] जो जीवों को भी नहीं जानता, अजीवों को भी नहीं जानता, जीव और अजीव दोनों को नहीं जाननेवाला वह संयम को कैसे जानेगा ?
[५९-७१] जो जीवों को, अजीवों को और दोनों को विशेषरूप से जानने वाला हो तो संयम को जानेगा । समस्त जीवों की बहुविध गतियों को जानता है । तब पुण्य और पाप तथा बन्ध और मोक्ष को भी जानता है । तब दिव्य और मानवीय भोग से विरक्त होता है । विरक्त होकर आभ्यन्तर और बाह्य संयोग का परित्याग कर देता है । त्याग करता है तब वह मुण्ड हो कर अनगारधर्म में प्रव्रजित होता है । प्रव्रजित हो जाता है, तब उत्कृष्टअनुत्तरधर्म का स्पर्श करता है । स्पर्श करता है, तब अबोधिरूप पाप द्वारा किये हुए कर्मरज को झाड़ देता है । कर्मरज को झाड़ता है, तब सर्वत्र व्यापी ज्ञान और दर्शन को प्राप्त करता है । तब वह जिन और केवली होकर लोक और अलोक को जानता है । लोक-अलोक को जान लेता है, तब योगों का निरोध करके शैलेशी अवस्था को प्राप्त कर लेता है । तब वह कर्मों का क्षय करके रज-मुक्त बन, सिद्धि को प्राप्त करता है । सिद्धि को प्राप्त कर लेता है, तब वह लोक के मस्तक पर स्थित होकर शाश्वत सिद्ध हो जाता है ।
[७२] जो श्रमण सुख का रसिक है, साता के लिए आकुल रहता है, अत्यन्त सोने वाला है, प्रचुर जल से बार-बार हाथ-पैर आदि को धोनेवाला है, ऐसे श्रमण को सुगति दुर्लभ है ।
[७३] जो श्रमण तपोगुण में प्रधान है, ऋजुमति है, शान्ति एवं संयम में रत है, तथा परीषहों को जीतने वाला है; ऐसे श्रमण को सुगति सुलभ है ।
[७४] भले ही वे पिछली वय में प्रव्रजित हुए हों किन्तु जिन्हें तप, संयम, क्षान्ति एवं ब्रह्मचर्य प्रिय हैं, वे शीघ्र ही देवभवनों में जाते हैं ।
[७५] इस प्रकार दुर्लभ श्रमणत्व को पाकर सम्यक् दृष्टि और सदा यतनाशील साधु या साध्वी इस षड्जीवनिका की मन, वचन और क्रिया से विराधना न करे-ऐसा मैं कहता हूँ ।
अध्ययन-४-का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण