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________________ २२ आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद तीन करण-तीन योग से, मैं मन से, वचन से, काया से; अप्काय की पूर्वोक्त विराधना स्वयं नहीं करूंगा, नहीं कराऊंगा और करने वाले का अनुमोदन भी नहीं करूंगा । भंते! मैं उस से निवृत्त होता हूँ, निन्दा करता हूँ, गर्हा करता हूँ और आत्मा का व्युत्सर्ग करता हूँ । [४३] संयत, विरत, प्रतिहत और प्रत्याख्यात - पापकर्मा वह भिक्षु या भिक्षुणी, दिन में या रात में, अकेले या परिषद् में, सोते या जागते; अग्नि, अंगारे, मुर्मुर, अर्चि, ज्वाला, अलात, शुद्ध अग्नि या उल्का को, उत्सिंचन, घट्टन, उज्ज्वालन, प्रज्वालन या स्वयं न करे, न दूसरों कराए और न करने वाले का अनुमोदन करे; भंते! यावज्जीवन के लिए, तीन करण, तीन योग से मैं मन से, वचन से और काया से अग्निसमारम्भ नहीं करूंगा, न कराऊंगा और न करने वाले का अनुमोदन करूंगा । भंते ! मैं उस से निवृत्त होता हूँ, उसकी निन्दा करता हूँ, गर्हा करता हूँ और उस आत्मा का व्युत्सर्ग करता हूँ । [४४] संयत, विरत, प्रतिहत और प्रत्याख्यातपापकर्मा, वह भिक्षु अथवा भिक्षुणी; दिन में या रात में, अकेले या परिषद् में, सोते या जागते, चामर, पंखे, ताड़ के पत्तों से बने हुए पंखे, पत्र, शाखा, शाखा के टूटे हुए खण्ड, मोरपिच्छी वस्त्र वस्त्र के पल्ले से, अपने हाथ या मुँह से, अपने शरीर को अथवा किसी बाह्य पुद्गल को (स्वयं) फूंक न दे, हवा न करे, दूसरों से न ही कराए तथा हवा करने वाले का अनुमोदन न करे । भंते! यावज्जीवन के लिए तीन करण, तीन योग से पूर्वोक्त वायुकाय - विराधना मन से, वचन से और काया से, स्वयं नहीं करूंगा, न दूसरों से कराऊंगा और करने वाले अन्य किसी का भी अनुमोदन नहीं करूंगा । भंते ! मैं उस से निवृत्त होता हूँ, उसकी निन्दा करता हूँ, गर्हा करता हूँ और उस आत्मा का व्युत्सर्ग करता हूँ । [४५] संयत, विरत, प्रतिहत और प्रत्याख्यातपापकर्मा, वह भिक्षु या भिक्षुणी; दिन में अथवा रात में, अकेले या परिषद् में हो, सोया हो या जागता हो; बीजों, बीजों पर रखे पदार्थों, फूटे हुए अंकुरों, अंकुरों पर रखे हुए पदार्थों पर, पत्रसंयुक्त अंकुरित वनस्पतियों, पत्रयुक्त अंकुरित वनस्पति पर रखे हुए पदार्थों, हरित वनस्पतियों, हरित वनस्पति पर रखे हुए पदार्थों, छिन्न वनस्पतियों, छिन्न-वनस्पति पर रखे पदार्थों, सचित्त कोल तथा संसर्ग से युक्त काष्ठ आदि पर, न चले, न खड़ा रहे, न बैठे और न करवट बदले; दूसरों को न चलाए, न खड़ा करे, न बिठाए और न करवट बदलाए, न उन चलने वाले आदि किसी का भी अनुमोदन करे । भंते! यावज्जीवन के लिए मैं तीन करण, तीन योग से, मन से, वचन से और काया से वनस्पतिकाय की विराधना नहीं करूंगा; न कराऊंगा और न ही करने वाले अन्य किसी का भी अनुमोदन करूंगा । भंते ! मैं उस से निवृत्त होता हूँ, उसकी निन्दा करता हूँ, गर्हा करता हूँ और उस आत्मा का व्युत्सर्ग करता हूँ । [४६] जो संयत है, विरत है, जिसने पाप कर्मों का निरोध और प्रत्याख्यान कर दिया है, वह भिक्षु या भिक्षुणी, दिन में या रात में, अकेले या परिषद् में हो, सोते या जागते; कीट, पतंगे, कुंथु अथवा पिपीलिका को हाथ, पैर, भुजा, उरु, उदर, सिर, वस्त्र, पात्र, रजोहरण, गुच्छक, उंडग, दण्डक, पीठ, फलक, शय्या, संस्तारक अथवा इसी प्रकार के अन्य किसी उपकरण पर चढ़ जाने के बाद यतना-पूर्वक प्रतिलेखन, प्रमार्जन कर एकान्त स्थान में ले जाकर रख दे उनको एकत्रित करके घात न पहुँचाए ।
SR No.009790
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size9 MB
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