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अनुयोगद्वार - ३३६
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प्रकारान्तर से समण का पर्यायवाची नाम है । जो सर्प, गिरि, अग्नि, सागर, आकाश-तल, वृक्षसमूह, भ्रमर, मृग, पृथ्वी, कमल, सूर्य और पवन के समान है, वही समण है । यह श्रमण तभी संभव है जब वह सुमन हो और भाव से भी पापी मन वाला न हो । जो माता-पिता आदि स्वजनों में एवं परजनों में तथा मान-अपमान में समभाव का धारक हो ।
सूत्रालापकनिष्पन्ननिक्षेप क्या है ? इस समय सूत्रालापकनिष्पन्ननिक्षेप की प्ररूपणा करने की इच्छा है और अवसर भी प्राप्त है । किन्तु आगे अनुगम नामक तीसरे अनुयोगद्वार में इसी का वर्णन किये जाने से लाघव की दृष्टि से अभी निक्षेप नहीं करते हैं ।
[३३७-३३९] भगवन् ! अनुगम का क्या है ? अनुगम के दो भेद हैं । सूत्रानुगम और निर्युक्त्यनुगम । निर्युक्त्यनुगम के तीन प्रकार हैं । यथा - निक्षेपनिर्युक्त्यनुगम, उपोद्घातनिर्युक्त्यनुगम और सूत्रस्पर्शिकनिर्युक्त्यनुगम । ( नाम स्थापना आदि रूप ) निक्षेप की निर्युक्ति का अनुगम पूर्ववत् जानना । आयुष्मन् ! उपोद्घातनिर्युक्ति अनुगम का स्वरूप गाथोक्तक्रम से इस प्रकार जानना - उद्देश, निर्देश, निर्गम, क्षेत्र, काल, पुरुष, कारण, प्रत्यय, लक्षण, नय, समवतार, अनुमत, किम-क्या, कितने प्रकार का, किसको, कहाँ पर, किसमें, किस प्रकार - कैसे, कितने काल तक, कितनी, अंतर, अविरह, भव, आकर्ष, स्पर्शना और नियुक्ति । अर्थात् इन प्रश्नों का उत्तर उपोद्घातनिर्युक्त्यनुगम रूप है ।
[३४०-३४२] सूत्रस्पर्शिकनिर्युक्त्यनुगम क्या है ? (जिस सूत्र की व्याख्या की जा रही है उस सूत्र को स्पर्श करने वाली नियुक्ति के अनुगम को सूत्रस्पर्शिक-निर्युक्त्यनुगम कहते हैं ।) इस अनुगम में अस्खलित, अमिलित, अव्यत्याम्रेडित, प्रतिपूर्ण, प्रतिपूर्णघोष कंठोष्ठविप्रमुक्त तथा गुरुवाचनोपगत रूप से सूत्र का उच्चारण करना चाहिये । इस प्रकार से सूत्र का उच्चारण करने से ज्ञात होगा कि यह स्वसमयपद है, यह परसमयपद है, यह बंधपद है, यह मोक्षपद है, अथवा यह सामायिकपद है, यह नोसामायिकपद है । सूत्र का निर्दोष विधि से उच्चारण किये जाने पर कितने ही साधु भगवन्तों को कितनेक अर्थाधिकार अधिगत हो जाते हैं और किन्हीं - किन्हीं को कितनेक अर्थाधिकार अनधिगत रहते हैं । अत एव उन अनधिगत अर्थों का अधिगम कराने के लिये एक-एक पद की प्ररूपणा करूंगा । जिसकी विधि इस प्रकार है -संहिता, पदच्छेद, पदों का अर्थ, पदविग्रह, चालना और प्रसिद्धि | यह व्याख्या करने की विधि के छह प्रकार हैं ।
[३४३-३५०] नय क्या है ? मूल नय सात हैं । नैगमनय, संग्रहनय, व्यवहारनय, ऋजुसूत्रनय, शब्दनय, समभिरूढनय और एवंभूतनय । जो अनेक प्रकारों से वस्तु के स्वरूप को जानता है, अनेक भावों से वस्तु का निर्णय करता है ( वह नैगमनय है ) । शेष नयों के लक्षण कहूँगा - सुनो । सम्यक् प्रकार से गृहीत - यह संग्रहनय का वचन है । इस प्रकार से संक्षेप में कहा है । व्यवहारनय सर्व द्रव्यों के विषय में विनिश्चय करने के निमित्त प्रवृत्त होता है । ऋजुसूत्रनयविधि प्रत्युत्पन्नग्राही जानना । शब्दनय पदार्थ को विशेषतर मानता है । समभिरूढनय वस्तु का अन्यत्र संक्रमण अवस्तु मानता है । एवंभूतनय व्यंजन अर्थ एवं तदुभव को विशेष रूप से स्थापित करता है ।
- इन नयों द्वारा हेय और उपादेय अर्थ का ज्ञान प्राप्त करके तदनकूल प्रवृत्ति करनी