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________________ २३८ आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद यथा-क्रोध-आय, मान-आय, माया-आय और लोभ-आय । यही अप्रशस्तभावआय है । क्षपणा क्या है ? चार प्रकार जानना । नामक्षपणा, स्थापनाक्षपणा, द्रव्यक्षपणा, भावक्षपणा । नाम और स्थापनाक्षपणा का वर्णन पूर्ववत् । द्रव्यक्षपणा दो प्रकार की है । आगम से और नोआगम से । जिसने 'क्षपणा' यह पद सीख लिया है, स्थिर, जित, मित और परिजित कर लिया है, इत्यादि वर्णन द्रव्याध्ययन के समान है । नोआगमद्रव्यक्षपणा के तीन भेद हैं । यथा-ज्ञायकशरीरद्रव्यक्षपणा, भव्यशरीरद्रव्यक्षपणा, ज्ञायकशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तद्रव्यक्षपणा । ज्ञायकशरीरद्रव्यक्षपणा क्या है ? क्षपणा पद के अधिकार के ज्ञाता का व्यपगत, च्युत, च्यावित, त्यक्त शरीर इत्यादि सर्व वर्णन द्रव्याध्ययन के समान जानना । समय पूर्ण होने पर जो जीव उत्पन्न हुआ और प्राप्त शरीर से जिनोपदिष्ट भाव के अनुसार भविष्य में क्षपणा पद को सीखेगा, किन्तु अभी नहीं सीख रहा है, ऐसा वह शरीर भव्यशरीरद्रव्यक्षपणा है । इसके लिये दृष्टान्त क्या है ? यह घी का घड़ा होगा, यह मधुकलश होगा, ऐसा कहना। ज्ञायकशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तद्रव्यक्षपणा का स्वरूप ज्ञायकशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तद्रव्य-आय के समान जानना । __ भावक्षपणा क्या है ? दो प्रकार की है । यथा-आगम से, नोआगम से । क्षपणा इस पद के अधिकार का उपयोगयुक्त ज्ञाता आगम से भावक्षपणा रूप है । नोआगमभावक्षपणा दो प्रकार की है । यथा-प्रशस्तभावक्षपणा, अप्रशस्तभावक्षपणा । नोआगमप्रशस्तभावक्षपणा चार प्रकार की है । यथा-क्रोधक्षपणा, मानक्षपणा, मायाक्षपणा और लोभक्षपणा । अप्रशस्तभावक्षपणा तीन प्रकार की कही गई है । यथा-ज्ञानक्षपणा, दर्शनक्षपणा, चारित्रक्षपणा । नामनिष्पन्न निक्षेप क्या है ? नामनिष्पन्न सामायिक है । वह चार प्रकार का है । यथा-नामसामायिक, स्थापनासामायिक, द्रव्यसामायिक, भावसामायिक | नामसामायिक और स्थापनासामायिक का स्वरूप पूर्ववत् । भव्यशरीरद्रव्यसामायिक तक द्रव्यसामायिक का वर्णन भी तथैव जानना । पत्र में अथवा पुस्तक में लिखित ‘सामायिक' पद ज्ञशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तद्रव्य सामायिक है । भावसामायिक क्या है ? दो प्रकार हैं । यथा-आगमभावसामायिक, नोआगमभावसामायिक । सामायिक पद के अर्थाधिकार का उपयोगयुक्त ज्ञायक आगम से भावसामायिक है । भगवन् ! नोआगमभावसामायिक क्या है ? [३३०-३३६] जिसकी आत्मा संयम, नियम और तप में संनिहित है, उसी को सामायिक होती है, जो सर्व भूतों, स्थावर आदि प्राणियों के प्रति समभाव धारण करता है, उसी को सामायिक होती है, ऐसा केवली भगवान् ने कहा है । जिस प्रकार मुझे दुःख प्रिय नहीं है, उसी प्रकार सभी जीवों को भी प्रिय नहीं है, ऐसा जानकर-अनुभव कर जो न स्वयं किसी प्राणी का हनन करता है, न दूसरों से करवाता है और न हनन की अनुमोदना करता है, किन्तु सभी जीवों को अपने समान मानता है, वही समण कहलाता है । जिसको किसी जीव के प्रति द्वेष नहीं है और न राग है, इस कारण वह सम मनवाला होता है । यह
SR No.009790
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size9 MB
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