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आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
हैं । यह द्रव्य की अपेक्षा से है । क्षेत्र की अपेक्षा से वे स्कन्ध आदि लोक के एक देश से लेकर सम्पूर्ण लोक तक में भाज्य हैं-यहाँ से आगे स्कन्ध और परमाणु के काल की अपेक्षा से चार भेद कहता हूँ । स्कन्ध आदि प्रवाह की अपेक्षा से अनादि अनन्त हैं और स्थिति की अपेक्षा से सादि सान्त हैं ।
[१४७७] रूपी अजीवों-पुद्गल द्रव्यों की स्थिति जघन्य एक समय और उत्कृष्ट असंख्यात काल की बताई गई है ।
[१४७८] रूपी अजीवों का अन्तर जघन्य एक समय और उत्कृष्ट अनन्त काल है ।
[१४७९] वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और संस्थान की अपेक्षा से स्कन्ध आदि का परिणमन पाँच प्रकार का है ।
[१४८०] जो स्कन्ध आदि पुद्गल वर्ण से परिणत हैं, वे पाँच प्रकार के हैं-कृष्ण, नील, लोहित, हारिद्र और शुक्ल ।
[१४८१] जो पुद्गल गन्ध से परिणत हैं, वे दो प्रकार के हैं-सुरभिगन्ध और दुरभिगन्ध ।
[१४८२] जो पुद्गल रस से परिणत हैं, वे पाँच प्रकार के हैं-तिक्त, कटु, कषाय, अम्ल और मधुर ।
[१४८३-१४८४] जो पुद्गल स्पर्श से परिणत हैं, वे आठ प्रकार के हैं-कर्कश, मृदु, गुरु, लघु, शीत, उष्ण, स्निग्ध और रूक्ष । इस प्रकार ये स्पर्श से परिणत पुद्गल कहे गये हैं ।
[१४८५] जो पुद्गल संस्थान से परिणत हैं, वे पाँच प्रकार के हैं-परिमण्डल, वृत्त, त्रिकोण, चौकोर और दीर्घ ।
[१४८६-१४९०] जो पुद्गल वर्ण से कृष्ण है, या वर्ण से नील है, या रक्त है, या पीत है, या वर्ण से शुक्ल हैं वह गन्ध, रस, स्पर्श और संस्थान से भाज्य है ।
[१४९१-१४९२] जो पुद्गल गन्ध से सुगन्धित है, या दुर्गन्धित है, वह वर्ण, रस, स्पर्श और संस्थान से भाज्य है ।
[१४९३-१४९७] जो पुद्गल रस से तिक्त है, कटु है, कसैला है, खट्टा है या मधुर है वह वर्ण, गन्ध, स्पर्श और संस्थान से भाज्य है ।
[१४९८-१५०५] जो पुद्गल स्पर्श से कर्कश है - मृदु है - गुरु है - लघु है - शीत है- उष्ण है - स्निग्ध है या रूक्ष है वह वर्ण, गन्ध, रस और संस्थान से भाज्य है ।।
[१५०६-१५१०] जो पुद्गल संस्थान से परिमण्डल है-वृत्त है - त्रिकोण है - चतुष्कोण है या आयत है वह वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श से भाज्य है ।
[१५११] यह संक्षेप से अजीव विभाग का निरूपण किया गया है । अब क्रमशः जीवविभाग का निरूपण करूँगा ।
[१५१२] जीव के दो भेद हैं-संसारी और सिद्ध । सिद्ध अनेक प्रकार के हैं । उनका कथन करता हूँ, सुनो ।
[१५१३] स्त्रीलिंग सिद्ध, पुरुषलिंग सिद्ध, नपुंसकलिंग सिद्ध और स्वलिंग सिद्ध, अन्यलिंग सिद्ध तथा गृहलिंग सिद्ध ।
[१५१४] उत्कृष्ट, जघन्य और मध्यम अवगाहना में तथा ऊर्ध्व लोक में, तिर्यक लोक में एवं समुद्र और अन्य जलाशय में जीव सिद्ध होते हैं ।