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उत्तराध्ययन-३५/१४५८
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होता है और बेचने वाला वणिक् अतः क्रय-विक्रय में प्रवृत्त साधु ‘साधु' नहीं है । भिक्षावृत्ति से ही भिक्षु को भि७ करनी चाहिए, क्रय-विक्रय से नहीं । क्रय-विक्रय महान् दोष है। भिक्षा-वृत्ति सुखावह है ।
। [१४५९-१४६०] मुनि श्रुत के अनुसार अनिन्दित और सामुदायिक उञ्छ की एषणा करे । वह लाभ और अलाभ में सन्तुष्ट रहकर भिक्षा-चर्या करे । अलोलुप, रस में अनासक्त, रसनेन्द्रिय का विजेता, अमूर्च्छित महामुनि यापनार्थ-जीवन-निर्वाह के लिए ही खाए, रस के लिए नहीं ।
[१४६१] मुनि अर्चना, रचना, पूजा, ऋद्धि, सत्कार और सम्मान की मन से भी प्रार्थना न करे ।
[१४६२] मुनि शुक्ल ध्यान में लीन रहे । निदानरहित और अकिंचन रहे । जीवनपर्यन्त शरीर की आसक्ति को छोड़कर विचरण करे ।
[१४६३] अन्तिम काल-धर्म उपस्थित होने पर मुनि आहार का परित्याग कर और मनुष्य-शरीर को छोड़कर दुःखों से मुक्तप्रभु हो जाता है ।
[१४६४] निर्मम, निरहंकार, वीतराग और अनाश्रव मुनि केवल-ज्ञान को प्राप्त कर शाश्वत परिनिर्वाण को प्राप्त होता है । -ऐसा मैं कहता हूँ ।
अध्ययन-३५-का मुनिदीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
( अध्ययन-३६-जीवाजीवविभक्ति) [१४६५] जीव और अजीव के विभाग का तुम एकाग्र मन होकर मुझसे सुनो, जिसे जानकर भिक्षु सम्यक् प्रकार से संयम में यत्नशील होता है ।
[१४६६] यह लोक जीव और अजीवमय कहा गया है और जहाँ अजीव का एक देश केवल आकाश है, वह अलोक कहा जाता है ।
[१४६७] द्रव्य से, क्षेत्र से, काल से और भाव से जीव और अजीव की प्ररूपणा होती है ।
[१४६८] अजीव के दो प्रकार हैं-रूपी और अरूपी । अरूपी दस प्रकार का है, और रूपी चार प्रकार का ।
[१४६९-१४७०] धर्मास्तिकाय और उसका देश तथा प्रदेश । अधर्मास्तिकाय और उसका देश तथा प्रदेश | आकाशास्तिकाय और उसका देश तथा प्रदेश | और एक अद्धा समय ये दस भेद अरूपी अजीव के हैं ।
[१४७१-१४७२] धर्म और अधर्म लोक-प्रमाण हैं । आकाश लोक और अलोक में व्याप्त है । काल केवल समय-क्षेत्र में ही है । धर्म, अधर्म, आकाश-ये तीनों द्रव्य अनादि, अपर्यवसित और सर्वकाल है ।
[१४७३] प्रवाह की अपेक्षा से समय भी अनादि अनन्त है । प्रतिनियत व्यक्ति रूप एक-एक क्षण की अपेक्षा से सादि सान्त है ।
[१४७४-१४७६] रूपी द्रव्य के चार भेद हैं-स्कन्ध, स्कन्ध-देश, स्कन्ध-प्रदेश और परमाणु । परमाणुओं के एकत्व होने से स्कन्ध होते हैं । स्कन्ध के पृथक् होने से परमाणु होते