________________
उत्तराध्ययन-३६/१५१५
१३९
[१५१५-१५१८] एक समय में दस नपुंसक, बीस स्त्रियाँ और एक-सौ आठ पुरुष एवं गृहस्थलिंग में चार, अन्यलिंग में दस, स्वलिंग में एक-सौ आठ एवं उत्कृष्ट अवगाहना में दो, जघन्य अवगाहना में चार और मध्यम अवगाहना में एक-सौ आठ एवं ऊर्ध्व लोक में चार, समुद्र में दो, जलाशय में तीन, अधो लोक में बीस, तिर्यक् लोक में एक-सौ आठ जीव सिद्ध हो सकते हैं ।
[१५१९-१५२०] सिद्ध कहाँ रुकते हैं ? कहाँ प्रतिष्ठित हैं ? शरीर को कहाँ छोड़कर, कहाँ जाकर सिद्ध होते हैं ? सिद्ध अलोक में रुकते हैं । लोक के अग्रभाग में प्रतिष्ठित हैं । मनुष्यलोक में शरीर को छोड़कर लोक के अग्रभाग में जाकर सिद्ध होते हैं ।
[१५२१-१५२३] सर्वार्थ-सिद्ध विमान से बारह योजन ऊपर ईपत्-प्राग्भारा पृथ्वी है । वह छत्राकार है । उसकी लम्बाई पैंतालीस लाख योजन है । चौड़ाई उतनी ही है । परिधि उससे तिगुनी है । मध्यम में वह आठ योजन स्थूल है । क्रमशः पतली होती होती अन्तिम भाग में मक्खी के पंख से भी अधिक पतली हो जाती है ।
__ [१५२४-१५२५] जिनवरों ने कहा है-वह पृथ्वी अर्जुन स्वर्णमयी है, स्वभाव से निर्मल है और उत्तान छत्राकार है । शंख, अंकरत्न और कुन्द पुष्प के समान श्वेत है, निर्मल
और शुभ है । इस सीता नाम की ईषत्-प्रागभारा पृथ्वी से एक योजन ऊपर लोक का अन्त है ।
[१५२६-१५२७] उस योजन के ऊपर का जो कोस है, उस कोस के छठे भाग में सिद्धों की अवगाहना होती है । भवप्रपंच से मुक्त, महाभाग, परम गति ‘सिद्धि' को प्राप्त सिद्ध वहाँ अग्रभाग में स्थित हैं ।
[१५२८] अन्तिम भव में जिसकी जितनी ऊँचाई होती है, उससे त्रिभागहीन सिद्धों की अवगाहना होती है ।
[१५२९] एक की अपेक्षा से सिद्ध सादिअनन्त है । और बहत्व की अपेक्षा से सिद्ध अनादि, अनन्त हैं ।
[१५३०] वे अरूप हैं, सघन हैं, ज्ञान-दर्शन से संपन्न हैं । जिसकी कोई उपमा नहीं है, ऐसा अतुल सुख उन्हें प्राप्त है ।
१५३१] ज्ञान-दर्शन से युक्त, संसार के पार पहुँचे हुए, परम गति सिद्धि को प्राप्त वे सभी सिद्ध लोक के एक देश में स्थित हैं।
[१५३२] संसारी जीव के दो भेद हैं-त्रस और स्थावर । उनमें स्थावर तीन प्रकार
के हैं ।
[१५३३] पृथ्वी, जल और वनस्पति-ये तीन प्रकार के स्थावर हैं । अब उनके भेदों को मुझसे सुनो ।
[१५३४-१५३६] पृथ्वीकाय जीव के दो भेद हैं-सूक्ष्म और बादर । पुनः दोनों के पर्याप्त और अपर्याप्त दो-दो भेद हैं । बादर पर्याप्त पृथ्वीकाय जीव के दो भेद हैं-श्लक्षण और खर । मृदु के सात भेद हैं-कृष्ण, नील, रक्त, पीत, श्वेत, पाण्डु और पनक । कठोर पृथ्वी के छत्तीस प्रकार हैं
[१५३७-१५४०] शुद्ध पृथ्वी, शर्करा, बालू, उपल-पत्थर, शिला, लवण, क्षाररूप