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गणिविद्या- ५५
बारह से मित्र । छ अंगुल से आरभड मुहूर्त, पाँच अंगुल से सौमित्र । चार से वायव्य, दो अंगुल से सुप्रतीत मुहूर्त्त होते है । मध्याहन स्थिति परिमंडल मुहूर्त होता है । दो अंगूल से रोहण, चार अंगुल छाया से पुनबल मुहूर्त होता है । पाँच अंगुल छाया से विजय मुहूर्त, छ सेत होता है । बारह अंगुल छाया से वरुण, ६० अंगुल से अधर्म और द्वीप मुहूर्त होता है । ९६ अंगुल छाया अनुसार रात-दिन के मुहूर्त्त बताए । दिन मुहूर्त से विपरीत रात्रि मुहूर्त जानना । दिन मुहूर्त गति द्वारा छाया का प्रमाण जानना ।
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[५६-५८] मित्र, नन्द, सुस्थित, अभिजित, चन्द्र, वारुण, अग्नि, वेश्य, ईशान, आनन्द, विजय । इस मुहूर्त योग में शिष्य - दिक्षा, व्रत-उपस्थापना और गणि वाचक की अनुज्ञा करना । बम्भ, वलय, वायु, वृषभ और वरुण मुहूर्त - योग में उत्तमार्थ (मोक्ष) के लिए पादपोपगमन अनशन करना ।
[५९-६०] पुंनामधेय शकुन में शिष्य दीक्षा करना । स्त्रीनामी शुकुन में विद्वान समाधि को साधे । नपुंसक शकुन में सर्व कर्म का वर्जन करना, व्यामिश्र निमित्त में सर्व आरम्भ वर्जन करना ।
[६१-६३] तिर्यंच बोले तब मार्गगमन करना, पुष्पफलित पेड़ देंखे तो स्वाध्यायक्रिया करना । पेड़ की डाली फूटने की आवाज से शिल्प की उपस्थापना करना । आकाश गडगडाट हो तो उत्तमार्थ (मोक्ष) साधना करना । बिलमूल की आवाज से स्थान ग्रहण करना । वज्र के उत्पात के शकुन हो तो मौत हो । प्रकाश शकुन मे हर्ष और संतोष विकुर्वना । [६४-६८] चल राशि लग्न में शिष्य - दिक्षा करना । स्थिर राशि लग्न में व्रत-उपस्थापना, श्रुतस्कंध अनुज्ञा, उदेश, समुदेश करना । द्विराशीलग्न में स्वाध्याय करना, रवि की होरामें शिष्य दीक्षा करना |
[ ६७ ] चन्द्र होरा में शीष्या संग्रह करना और सौम्य लग्न में चरण - करण शिक्षाप्रदान करना । खूणा - दिशा लग्न मे उत्तमार्थ साधना, इस प्रकार लग्न बल जानना और दिशाकोना आदि के लिए संशय नहीं करना ।
[६९-७१] सौम्यग्रह लग्न में हो तब शिष्यदीक्षा करना, क्रुरग्रह लग्न में हो तब उत्तमार्थ साधना करनी । राहु या केतु लग्न में सर्वकर्म वर्जन करने, प्रशस्त लग्न में प्रशस्त कार्य करे । अप्रशस्त लग्न में सर्व कार्य वर्जन करने । जिनेश्वर भाषित ऐसे ग्रह के लग्न को जानने चाहिए । [७२] निमित्त नष्ट नहीं होते । ऋषिभाषित् मिथ्या नहीं होते, दुर्दिष्टि निमित्त द्वारा व्यवहार नष्ट होता है । सुदृष्ट निमित्त द्वारा व्यवहार नष्ट नहीं होता ।
[७३-७९] जो उत्पातिकी बोली और जो बच्चे बोलते है । और फिर स्त्री जो बोलती है उसका व्यतिक्रम नहीं है. उस जात द्वारा और उस जात का और उसके द्वारा समान तद्रूप से ताप्य और सदृश से सदृश निर्देश होता है । स्त्री-पुरुष के निमित में शिष्य-दीक्षा करना । नपुंसक निमित्त में सर्वकार्य वर्जन, व्यामिश्र निमित्त में सर्व आरम्भ वर्जन करना, निमित्त कृत्रिम नहीं है । निमित्त भावि बताते है । जिससे सिद्ध पुरुष निमित्त उत्पत्त लक्षण को जानते है । प्रशस्त - दृढ और ताकतवर निमित्त में शिष्य-दीक्षा, व्रत- स्थापना, गणसंग्रह करना और गणधर की स्थापना करनी । श्रुतस्कंध और गणि वाचक की अनुज्ञा करनी चाहिए।
[८०-८१] अप्रशस्त, कमजोर और शिथिल निमित्त में सर्व कार्य वर्जन करना और