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आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
विमुक्त बाकी के नक्षत्र ताकतवर जानने ।
[२१-२८] पुष्य, हस्त, अभिजित, अश्विनी और भरणी नक्षत्र में पादपोगमन करना। श्रवण, घनिष्ठा और पुनर्वसु में निष्क्रमण(दिक्षा) नहीं करना, शतभिषा, पुष्य, हस्त, नक्षत्र में विद्यारंभ करना चाहिए । मृगशीर्ष, आर्द्रा, पुष्य, तीन पूर्वा, मूल, आश्लेषा, हस्त, चित्रा यह दस ज्ञान के वृद्धिकारक नक्षत्र है । हस्त आदि पांच वस्त्र के लिए प्रशस्त है । पुनर्वसु, पुष्य श्रवण और घनिष्ठा यह चार नक्षत्र में लोचकर्म करना । तीन उत्तरा और रोहिणी में नव दीक्षित को निष्क्रमण (दिक्षा), उपस्थापना (वड़ी दीक्षा) और गणि या वाचक की अनुज्ञा करना । गणसंग्रह करना, गणधर स्थापना करना । अवग्रह वसति, स्थान में स्थिरता करना ।।
[२९] पुष्य, हस्त, अभिजित, अश्विनी, यह चार नक्षत्र कार्य आरम्भ के लिए सुन्दर और समर्थ है । (कौन से कार्य वो बत्ताते है) ।
[३०] विद्या धारण करना, ब्रह्मयोग साधना, स्वाध्याय, अनुज्ञा, उदेश और समुद्देश ।
[३१-३२] अनुराधा, रेवती, चित्रा और मृगशीर्ष यह चार मृदु नक्षत्र है उसमें मृदु कार्य करने चाहिए । भिक्षाचरण से पीड़ित को ग्रहण धारण करना चाहिए । बच्चे और बुढ़ो के लिए संग्रह-उपग्रह करना चाहिए ।
[३३-३४] आर्द्रा, आश्लेषा, ज्येष्ठा और मूल यह चार नक्षत्र में गुरुप्रतिमा और तपकर्म करना । देव-मानव-तिर्यंच का उपसर्ग सहना, मूलगुण-उत्तरगुण पुष्टी करना ।
[३५-३६] मधा, भरणी, तीनोंपूर्वा उग्र नक्षत्र है । उसमें बाह्य अभ्यंतर तप करना। ३६० तप कर्म है । उग्रनक्षत्र के योग में उससे दुसरे तप करने चाहिए।
_ [३७-३८] कृतिका और विशाखा यह दोनो उष्ण नक्षत्र में लेपन और सीवण एवं संथारा-उपकरण, भाँड़ आदि, विवाद, अवग्रह और वस्त्र (धारण करना) आचार्य द्वारा उपकरण और विभाग करना ।
[३९-४१] घनिष्ठा, शतभिषा, स्वाति, श्रवण और पुनर्वसु इस नक्षत्र में गुरुसेवा, चैत्यपूजन, स्वाध्यायकरण करना, विद्या और विरति करवाना, व्रत-उपस्थापना गणि और वाचक की अनुज्ञा करना । गणसंग्रह, शिष्यदीक्षा, गणावच्छेदक द्वारा संग्रह-आदि करना ।
[४२-४३] बव, बालव, कोलव, स्त्रिलोचन, गर-आदि, वणिज विष्टी, शुकल पक्ष के निशादि करण है; शकुनि, चतुष्पाद, नाग, किंस्तुघ्न ध्रुव करण है । कृष्ण चौदश की रात को शकुनिकरण होता है ।
[४४] तिथि को दुगना करके अंधेरी रात न गिनते हुए साँत से हिस्से करने से जो बचे वो करण । (सामान्य व्यवहार में एक तिथि के दो करण बताए है ।)
[४५] बव, बालव, कौलव, वणिज्, नाग, चतुष्पाद यह करण में शिष्य-दीक्षा करना।
[४६] बव में व्रत-उपस्थापन, गणि-वाचक की अनुज्ञा करना । शकुनि और विष्टी करण में अनशन करना ।
[४७-४८] गुरु-शुक्र और सोम दिन में शैक्षनिष्क्रमण, व्रत, उपस्थापन और गणि वाचक अनुज्ञा करना । रवि, मंगल और शनि के दिन मूल-उत्तरगुण, तपकर्म और पादपोपगमन कार्य करना चाहिए।
[४९-५५] रुद्र आदि मुहूर्त ९६ अंगुल छाया प्रमाण है । ६० अंगुलछाया से श्रेय,