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________________ जीवाजीवाभिगम-३ / द्वीप./१६५ ८३ रुरु, सरभ, हाथी, वनलता और पद्मलता के चित्र बने हुए हैं । इन तोरणों के स्तम्भों पर वज्रमयी वेदिकाएँ हैं । समश्रेणी विद्याधरों के युगलों के यन्त्रों के प्रभाव से ये तोरण हजारों किरणों से प्रभासित हो रहे हैं । ये तोरण हजारों रूपकों से युक्त हैं, दीप्यमान हैं, विशेष दीप्यमान हैं, देखनेवालों के नेत्र उन्हीं पर टिक जाते हैं । उन तोरणों का स्पर्श बहुत ही शुभ है, उनका रूप बहुत ही शोभायुक्त लगता है । वे तोरण प्रासादिक, दर्शनीय, अभिरूप और प्रतिरूप हैं । उन तोरणों के ऊपर बहुत से आठ-आठ मंगल हैं- स्वस्तिक, श्रीवत्स, नंदिकावर्त, वर्धमान, भद्रासन, कलश, मत्स्य और दर्पण । ये सब आठ मंगल सर्वरत्नमय हैं, स्वच्छ हैं, सूक्ष्म पुद्गलों से निर्मित हैं, प्रासादिक हैं यावत् प्रतिरूप हैं । उन तोरणों के ऊर्ध्वभाग में अनेकों कृष्ण कान्तिवाले चामरों से युक्त ध्वजाएँ हैं, नीलवर्ण वाले चामरों से युक्त ध्वजाएँ हैं, वर्ण वाले चामरों से युक्त ध्वजाएँ हैं, पीलेवर्ण के चामरों से युक्त ध्वजाएँ हैं और सफेदवर्ण के चामरों से युक्त ध्वजाएँ हैं । ये सब ध्वजाएँ स्वच्छ हैं, मृदु हैं, वज्रदण्ड के ऊपर का पट्ट चाँदी का है, इन ध्वजाओं के दण्ड वज्ररत्न के हैं, इनकी गन्ध कमल के समान है, अतएव ये सुरम्य हैं, सुन्दर हैं, प्रासादिक हैं, दर्शनीय हैं, अभिरूप हैं एवं प्रतिरूप हैं । इन तोरणों के ऊपर एक छत्र के ऊपर दूसरा छत्र, दूसरे पर तीसरा छत्र - इस तरह अनेक छत्र हैं, एक पताका पर दूसरी पताका, दूसरी पर तीसरी पताका इस तरह अनेक पताकाएँ हैं । इन तोरणों पर अनेक घंटायुगल हैं, अनेक चामरयुगल हैं और अनेक उत्पलहस्तक हैं यावत् शतपत्र - सहस्रपत्र कमलों के समूह हैं । ये सर्वरत्नमय हैं, स्च्छ हैं यावत् प्रतिरूप हैं । उन छोटी वावड़ियों यावत् कूपपंक्तियों में उन उन स्थानों में उन उन भागों में बहुत से उत्पातपर्वत हैं, बहुत से नियतिपर्वत हैं जगतीपर्वत हैं, दारुपर्वत हैं, स्फटिक के मण्डप हैं, स्फटिकरन के मंच हैं, स्फटिक के माले हैं, स्फटिक के महल हैं जो कोई तो ऊंचे हैं, कोई छोटे हैं, कितनेक छोटे किन्तु लंबे हैं, वहाँ बहुत से आंदोलक हैं, पक्षियों के आन्दोलक हैं । ये सर्वरत्नमय हैं, स्वच्छ हैं, यावत् प्रतिरूप हैं । उन उत्पातपर्वतों में यावत् पक्षियों के आन्दोलकों में बहुत से हंसासन, क्रौंचासन, गरुड़ासन, उन्नतासन, प्रणतासन, दीर्घासन, भद्रासन, पक्ष्यासन, मकरासन, वृषभासन, सिंहासन, पद्मासन और दिशास्वस्तिकासन हैं । ये सब सर्वरत्नमय हैं, स्वच्छ हैं, मृदु हैं, स्निग्ध हैं, घृष्ट हैं, मृष्ट हैं, नीरज हैं, निर्मल हैं, निष्पक हैं, अप्रतिहत कान्तिवाले हैं, प्रभामय हैं, किरणोंवाले हैं, उद्योतवाले हैं, प्रासादिक हैं, दर्शनीय हैं, अभिरूप हैं और प्रतिरूप हैं । उस वनखण्ड के उन उन स्थानों और भागों में बहुत से आलघिर हैं, मालिघर हैं, कदलीघर हैं, लताघर हैं, ठहरने के घर हैं, नाटकघर हैं, स्नानघर, प्रसाधन, गर्भगृह, मोहनघर हैं, शालागृह, जालिप्रधानगृह, फूलप्रधानगृह, चित्रप्रधानगृह, गन्धर्वगृह और आदर्शघर हैं । ये सर्वरत्नमय, स्वच्छ यावत् बहुत सुन्दर हैं । उन आलिघरों यावत् आदर्शघरों में बहुत से हंसासन यावत् दिशास्वस्तिकासन रखे हुए हैं, जो सर्वरत्नमय हैं यावत् सुन्दर हैं । उस वनखण्ड के उन उन स्थानों और भागों में बहुत से जाई मण्डप हैं, जूही के, मल्लिका के नवमालिका के, वासन्तीलता के, दधिवासुका वनस्पति के, सूरिल्ली - वनस्पति के, तांबूली के, द्राक्षा के, नागलता, अतिमुक्तक, अप्फोयावनस्पति विशेष के, मालुका, और श्यामलता के यह सब मण्डप हैं ।
SR No.009785
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size10 MB
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