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जीवाजीवाभिगम-३/नैर.-२/१०५
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फिर उसे ठंडा करे । उस ठंडे लोहे के गोले को लोहे की संडासी से पकड़ कर असत् कल्पना से उष्णवेदना वाले नरकों में रख दे, इस विचार के साथ कि मैं एक उन्मेष-निमेष में उसे फिर निकाल लूंगा । परन्तु वह क्षण भर में ही उसे फूटता, मक्खन की तरह पिघलता, सर्वथा भस्मीभूत होते हुए देखता है । वह लुहार का लड़का उस लोहे के गोले की अस्फुटित, अगलित और अविध्वस्त रूप में पुनः निकाल लेने में समर्थ नहीं होता ।
(दूसरा दृष्टान्त) कोई मदवाला मातंग हाथी जो साठ वर्ष का है प्रथम शरत् काल अथवा अन्तिम ग्रीष्मकाल समय में गरमी से पीड़ित होकर, तृषा से बाधित होकर, दावाग्नि की ज्वालाओं से झुलसता हुआ, आतुर, शुषित, पिपासित, दुर्बल और क्लान्त बना हुआ एक बड़ी पुष्करिणी को देखता है, जिसके चार कोने हैं, जो समान किनारे वाली है, जो क्रमशः आगेआगे गहरी है, जिसका जलस्थान अथाह है, जिसका जल शीतल है, जो कमलपत्र कंद और मृणाल से ढंकी हुई है । जो बहुत से खिले हुए केसरप्रधान उत्पल, कुमुद, नलिन, सुभग, सौगंधिक, पुण्डरीक, महापुण्डरीक, शतपत्र, सहस्रपत्र आदि विविध कमलकी जातियों से युक्त है, जिसके कमलों पर भ्रमर रसपान कर रहे हैं, जो स्वच्छ निर्मल जल से भरी हुई है, जिसमें बहुत से मच्छ और कछुए इधर-उधर घूम रहे हों, अनेक पक्षियों के जोड़ों के चहचहाने के शब्दों के कारण से जो मधुर स्वर से सुनिनादित हो रही है, ऐसी पुष्पकरिणी को देखकर वह उसमें प्रवेश करता है, अपनी गरमी को शान्त करता है, तृषा को दूर करता है, भूख को मिटाता है, तापजनित ज्वर को नष्ट करता है और दाह को उपशान्त करता है । इस प्रकार उष्णता आदि के उपशान्त होने पर वह वहाँ निद्रा लेने लगता है, आँखें मूंदने लगता है, उसकी स्मृति, रति, धृति तथा मति लौट आती है, शीतल और शान्त होकर धीरे-धीरे वहाँ से निकलता-निकलता अत्यन्त साता-सुख का अनुभव करता है ।
इसी प्रकार हे गौतम ! असत्कल्पना के अनुसार उष्णवेदनीय नरकों से निकल कर कोई नैरयिक जीव इस मनुष्यलोक में जो गुड पकाने की, शराब बनाने की, बकरी की लिण्डियों की अग्निवाली, लोहा-ताँबा, रांगा सीसा, चांदी, सोना हिरण्य को गलाने की भट्ठियां, कुम्भकार के भट्टे की अग्नि, मूस की अग्नि, ईंटें पकाने के भट्ठे की अग्नि, कवेलु पकाने के भट्टे की अग्नि, लोहार के भट्ठे की अग्नि, इक्षुरस पकाने की चूल की अग्नि, तिल की अग्नि, तुष की अग्नि, नड-बांस की अग्नि आदि जो अग्नि और अग्नि के स्थान हैं, जो तप्त हैं
और तपकर अग्नि-तुल्य हो गये हैं, फूले हुए पलास के फूलों की तरह लाल-लाल हो गये हैं, जिनमें से हजारों चिनगारियां निकल रही हैं, हजारों ज्वालाएँ निकल रही हैं, हजारों अंगारे जहाँ बिखर रहे हैं और जो अत्यन्त जाज्वल्यमान हैं, जो अन्दर ही अन्दर धू-धू धधकते हैं, ऐसे अग्निस्थानों और अग्नियों को वह नारक जीव देखे और उनमें प्रवेश करे तो वह अपनी उष्णता को शान्त करता है, तृषा, क्षुधा और दाह को दूर करता है और ऐसा होने से वह वहाँ नींद भी लेता है, आँखें भी मूंदता है, स्मृति, रति, धृति और मति प्राप्त करता है
और ठंडा होकर अत्यन्त शान्ति का अनुभव करता हुआ धीरे-धीरे वहाँ से निकलता हुआ अत्यन्त सुख-साता का अनुबव करता है । भगवन् ! क्या नारकों की ऐसी उष्णवेदना है ? भगवान् ने कहा नहीं, यह बात नहीं है; इससे भी अनिष्टतर उष्णवेदनाको नारक