________________
जीवाजीवाभिगम-१/-/४९
२९
ज्ञानवाले हैं वे नियम से मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी और मनःपर्यवज्ञान वाले हैं । जो एक ज्ञान वाले हैं वे नियम से केवलज्ञानवाले हैं । इसी प्रकार जो अज्ञानी हैं वे दो अज्ञान वाले या तीन अज्ञान वाले हैं । वे मनयोगी, वचनयोगी, काययोगी और अयोगी भी हैं । उनमें दोनों प्रकार का साकार-अनाकार उपयोग होता है । उनका छहों दिशाओं से आहार होता है।
वे सातवें नरक को छोड़कर शेष सब नरकों से आकर उत्पन्न होते हैं, असंख्यात वर्षायु को छोड़कर शेष सब तिर्यंचों से भी उत्पन्न होते हैं, अकर्मभूमिज, अन्तर्दीपज और असंख्यात वर्षायुवालों को छोड़कर शेष मनुष्यों से भी उत्पन्न होते हैं और सब देवों से आकर भी उत्पन्न होते हैं । उनकी जघन्य स्थिति अन्तर्मुहर्त और उत्कृष्ट तीन पल्योपम की होती है । ये दोनों प्रकार के मरण से मरते हैं । ये यहाँ से मर कर नैरयिकों में यावत् अनुत्तरोपपातिक देवों में भी उत्पन्न होते हैं और कोई सिद्ध होते हैं यावत् सब दुःखों का अन्त करते हैं । भगवन् ! ये जीव कितनी गतिवाले और कितनी आगतिवाले कहे गये हैं ? गौतम ! पांच गतिवाले और चार आगतिवाले हैं । ये प्रत्येकशरीरी और संख्यात हैं ।
[५०] देव क्या हैं ? देव चार प्रकार के हैं, यथा-भवनवासी, वानव्यंतर, ज्योतिष्क और वैमानिक । भवनवासी देव क्या हैं ? भवनवासी देव दस प्रकार के कहे गये हैंअसुरकुमार यावत् स्तनितकुमार । वाणमन्तर क्या है ? (प्रज्ञापनासूत्र के अनुसार) देवों के भेद कहने चाहिए । यावत् वे संक्षेप से पर्याप्त और अपर्याप्त के भेद से दो प्रकार के हैं ।
उनके तीन शरीर होते हैं-वैक्रिय, तैजस और कार्मण । अवगाहना दो प्रकार की होती है-भवधारणीय और उत्तरवैक्रियिकी । इनमें जो भवधारणीय है वह जघन्य से अंगुल का असंख्यातवां भाग और उत्कृष्ट सात हाथ की है । उत्तरवैक्रियिकी जघन्य से अंगुल का संख्यातवां भाग और उत्कृष्ट एक लाख योजन की है । देवों के शरीर छह संहननों में से किसी संहनन के नहीं होते हैं, क्योंकि उनमें न हड्डी होती है न शिरा और न स्नायु हैं, इसलिए संहनन नहीं होता । जो पुद्गल इष्ट कांत यावत् मन को आह्लादकारी होते हैं उनके शरीर रूप में एकत्रित हो जाते हैं-परिणत हो जाते हैं । भगवन् ! देवों का संस्थान क्या है ? गौतम ! संस्थान दो प्रकार के हैं-भवधारणीय और उत्तरवैक्रियिक | उनमें जो भवधारणीय है वह समचतुरस्रस्थान है और जो उत्तरवैक्रियिक है वह नाना आकार का है । देवों में चार कषाय, चार संज्ञाएँ, छह लेश्याएँ, पांच इन्द्रियां, पांच समुद्घात होते हैं । वे संज्ञी भी हैं और असंज्ञी भी हैं । वे स्त्रीवेद वाले, पुरुषवेद वाले हैं, नपुंसकदेव वाले नहीं हैं । उनमें पांच पर्याप्तियां और पांच अपर्याप्तियां होती हैं । उनमें तीन दृष्टियां, तीन दर्शन होते हैं ।
वे ज्ञानी भी होते हैं और अज्ञानी भी । जो ज्ञानी हैं वे नियम से तीन ज्ञानवाले हैं और अज्ञानी हैं वे भजना से तीन अज्ञानवाले हैं । उनमें साकार अनाकार दोनों उपयोग पाये जाते हैं । तीनों योग होते हैं । आहार नियम से छहों दिशाओं के पुद्गलों को ग्रहण करना है । प्रायः करके पीले और सफेद शुभ वर्ण के यावत् शुभगंध, शुभरस, शुभस्पर्श वाले पुद्गलों का आहार करते हैं । वे तिर्यंच और मनुष्यों से आकर उत्पन्न होते हैं । उनकी स्थिति जघन्य से १०००० वर्ष और उत्कृष्ट तेतीस सागरोपम की है । वे मारणांतिकसमुद्घात से समवहत