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जीवाजीवाभिगम - १/-/४०
के हैं- भवधारणीय और उत्तरवैक्रिय । दोनो शरीर हुंड संस्थान वाले हैं ।
उन नैरयिक जीवों के चार कषाय, चार संज्ञाएँ, तीन लेश्याएँ, पांच इन्द्रियाँ, आरम्भ के चार समुद्घात होते हैं । वे जीव संज्ञी भी हैं, असंज्ञी भी हैं । वे नपुंसक वेद वाले हैं। उनके छह पर्याप्तियाँ और छह अपर्याप्तियाँ होती हैं । वे तीन दृष्टिवाले और तीन दर्शनवाले हैं । वे ज्ञानी भी हैं और अज्ञानी भी हैं । जो ज्ञानी हैं वे नियम से तीन ज्ञानवाले हैंमतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी । जो अज्ञानी हैं उनमें से कोई दो अज्ञानवाले और कोई तीन अज्ञान वाले हैं । जो दो अज्ञानवाले हैं वे नियम से मतिअज्ञानी और श्रुतअज्ञानी हैं और जो तीन अज्ञानवाले हैं वे नियम से मतिअज्ञानी, श्रुतअज्ञानी और विभंगज्ञानी हैं । उनमें तीन योग, दो उपयोग एवं छह दिशाओं का आहार ग्रहण पाया जाता है । प्रायः करके वे वर्ण से काले आदि पुद्गलों का आहार ग्रहण करते हैं । तिर्यंच और मनुष्यों से आकर वे नैरयिक रूप में उत्पन्न होते हैं । उनकी स्थिति जघन्य दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट तेतीस सागरोपम की है । वे दोनों प्रकार से मरते हैं । वे मरकर गर्भज तिर्यंच एवं मनुष्य में जाते हैं - वे दो गतिवाले, दो आगतिवाले, प्रत्येक शरीरी और असंख्यात कहे गये हैं ।
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[४१] पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक कौन हैं ? पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक दो प्रकार के हैं । संमूर्छिम पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक और गर्भव्युत्क्रान्तिक पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक ।
[४२] संमूर्छिम पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक कौन हैं ? संमूर्छिम पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक तीन प्रकार के हैं - जलचर, स्थलचर और खेचर
[४३] जलचर कौन हैं ? जलचर पाँच प्रकार के हैं-मत्स्य, कच्छप, मगर, ग्राह और सुंसुमार । मच्छ क्या हैं ? मच्छ अनेक प्रकार के हैं इत्यादि वर्णन प्रज्ञापना के अनुसार जानना यावत् इस प्रकार के अन्य भी मच्छ आदि ये सब जलचर संमूर्छिम पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक जीव संक्षेप से दो प्रकार के हैं - पर्याप्त और अपर्याप्त । हे भगवन् ! उन जीवों के कितने शरीर हैं ? गौतम ! तीन, औदारिक, तैजस और कार्मण । उनके शरीर की अवगाहना जघन्य से अंगुल का असंख्यातवां भाग और उत्कृष्ट एक हजार योजन । वे सेवार्तसंहनन वाले, हुण्डसंस्थान वाले, चार कषाय वाले, चार संज्ञाओं वाले, पांच लेश्याओं वाले हैं । उनके पांच इन्द्रियाँ, तीन समुद्घात होते हैं । वे असंज्ञी हैं । वे नपुंसक वेद वाले हैं । उनके पांच पर्याप्तियां और पांच अपर्याप्तियाँ होती हैं । उनके दो दृष्टि, दो दर्शन, दो ज्ञान, दो अज्ञान, दो प्रकार के योग, दो प्रकार के उपयोग और आहार छहों दिशाओं के पुद्गलों का होता है ।
वे तिर्यंच और मनुष्यों से आकर उत्पन्न होते हैं, देवों और नारकों से नहीं । तिर्यंचों में से भी असंख्यातवर्षायु वाले तिर्यंच इनमें उत्पन्न नहीं होते । अकर्मभूमि और अन्तद्वीपों के असंख्यात वर्ष की आयुवाले मनुष्य भी इनमें उत्पन्न नहीं होते । इनकी स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट पूर्वकोटि की है । ये मारणांतिक समुद्घात से समवहत होकर भी मरते हैं और असमवहत होकर भी । भगवन् ! ये संमूर्च्छिम जलचर जीव मरकर कहाँ उत्पन्न होते हैं ? गौतम ! ये नरक आदि चारो गति में उत्पन्न होते हैं । यदि नरक में उत्पन्न होते हैं तो रत्नप्रभा नरक तक ही उत्पन्न होते हैं । तिर्यंच में उत्पन्न हों तो सब तिर्यंचों में, चतुष्पदों में और पक्षियों में उत्पन्न होते है । मनुष्य में उत्पन्न हों तो सब कर्मभूमियों के मनुष्यों में उत्पन्न