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जीवाजीवाभिगम-३/द्वीप./१७९
वर्षधर पर्वत हैं ऊधर आते हैं और वहाँ से सर्व ऋतुओं के श्रेष्ठ सब जाति के फूलों, सब जाति के गंधों, सब जाति के माल्यों, सब प्रकार की औषधियों और सिद्धार्थकों को लेते हैं ।
पद्मद्रह और पुण्डरीकद्रह का जल और उत्पल कमलों यावत् शतपत्र-सहस्रपत्र कमलों को लेते हैं । फिर हेमवत और हैरण्यवत क्षेत्रों में रोहित-रोहितांशा, सुवर्णकूला और रूप्यकूला महानदियों पर का जल और मिट्टी ग्रहण करते हैं । फिर शब्दापाति और माल्यवंत नाम के वृत्तताढ्य पर्वतों के सब ऋतुओं के श्रेष्ठ फूलों यावत् सिद्धार्थकों को लेते हैं । फिर महाहिमवंत
और रुक्मि वर्षधर पर्वतों सब ऋतुओं के पुष्पादि लेते हैं । फिर महाहिमवंत और रुक्मि वर्षधर पर्वतों सब ऋतुओं के पुष्पादि लेते हैं । फिर महापद्मद्रह और महापुंडरीकद्रह के उत्पल कमलादि ग्रहण करते हैं । फिर हरिवर्ष रम्यकवर्ष की हरकान्त-हरिकान्त-नरकान्त-नारिकान्त नदियों का जल ग्रहण करते हैं । फिर विकटापाति और गंधापाति कृत वैताढ्य पर्वतों के श्रेष्ठ फूलों को ग्रहण करते हैं । निषध और नीलवंत वर्षधर पर्वतों के पुष्पादि ग्रहण करते हैं । तिगिंछद्रह
और केसरिद्रह के उत्पल कमलादि ग्रहण करते हैं । पूर्वविदेह और पश्चिम विदेह की शीता, शीतोदा महानदियों का जल और मिट्टी ग्रहण करते हैं । सब चक्रवर्ती विजयों के सब मागध, वरदाम और प्रभास नामक तीर्थों का पानी और मिट्टी ग्रहण करते हैं । सब वक्षस्कार पर्वतों के फूल आदि ग्रहण करते हैं । सब अन्तर् नदियों का जल और मिट्टी ग्रहण करते हैं । मेरुपर्वत के भद्रशालवन के सर्व ऋतुओं के फूल यावत सिद्धार्थक ग्रहण करते हैं । नन्दनवन हैं, के सब ऋतुओं के श्रेष्ठ फूल यावत् सरस गोशीर्ष चन्दन ग्रहण करते हैं । सौमनसवन के फूल यावत् दिव्य फूलों की मालाएँ ग्रहण करते हैं । पण्डकवन के फूल, सर्वौषधियाँ, सिद्धार्थक, सरस गोशीर्ष चन्दन, दिव्य फूलों की माला और कपडछन्न किया हुआ मलय-चन्दन का चूर्ण आदि सुगन्धित द्रव्यों को ग्रहण करते हैं । तदनन्तर सब आभियोगिक देव एकत्रित होकर जम्बूद्वीप के पूर्वदिशा के द्वार से निकलते हैं और यावत् विजया राजधानी की प्रदक्षिणा करते हुए अभिषेकसभा में विजयदेव के पास आते हैं और हात जोरकर, मस्तक पर अंजलि लगाकर जय-विजय के सब्दों से उसे बधाते हैं । वे महार्थ, महाघ और महार्ह विपुल अभिषेक सामग्री को उपस्थित करते हैं ।
तदनन्तर चार हजार सामानिक देव, सपरिवार चार अग्रमहिषियाँ, तीन पर्षदाओं के देव, सात अनीक, सात अनीकाधिपति, सोलह हजार आत्मरक्षक देव और अन्य बहुत से विजया राजधानी के निवासी देव-देवियां उन स्वाभाविक और उत्तरवैक्रिय से निर्मित श्रेष्ठ कमल के आधारवाले, सुगन्दित श्रेष्ठ जल से भरे हुए, चन्दन से चर्चित, गलों में मौलि बंधे हुए, पद्मकमल के ढक्कन वाले, सुकुमार और मृदु करतलों में परिगृहीत १००८ सोने के, यावत् १००८ मिट्टी के कलशों के सर्वजल से, सर्व मिट्टी से, सर्व ऋतु के श्रेष्ठ सर्व पुष्पों से यावत् सर्वौषधि और सरसों से सम्पूर्ण परिवारादि ऋद्धि, द्युति, सेना, और आभियोग्य समुदय के साथ, समस्त आदर से, विभूति से, विभूषा से, संभ्रम से, दिव्य वाद्यों की ध्वनि से, महती ऋद्धि, महती द्युति, महान् बल महान् समुदय, महान् वाद्यों के शब्द से, शंख, पणव, नगाड़ा, भेरी, झल्लरी, खरमुही, हुडुक्क, मुरज, मृदंग एवं दुंदुभि के निनाद और गूंज के साथ उस विजयदेव को बहुत उल्लास के साथ इन्द्राभिषेक से अभिषिक्त करते हैं ।
तदनन्तर उस विजयदेव के महान् इन्द्राभिषेक के चलते हुए कोई देव दिव्य सुगन्धित