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________________ आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद वाले, जो तिर्यक् लोक के ऊपरी भाग में रहने वाले तथा अविश्रान्त वर्तुलाकार गति करनेवाले हैं । ऊर्ध्वलोक में निवास करने वाले वैमानिक देव दो प्रकार के हैं- कल्पोपपन्न और कल्पातीत । सौधर्म, ईशान, सानत्कुमार, माहेन्द्र, ब्रह्मलोक, लान्तक, महाशुक्र, सहस्रार, आनत, प्राणत, आरण और अच्युत, ये उत्तम कल्प- विमानों में वास करने वाले - कल्पोपपन्न हैं । नौ ग्रैवेयकों और पांच अनुत्तर विमानों में रहनेवाले दोनों प्रकार के देव कल्पातीत हैं । ये विमानवासी देव महान् ऋद्धि के धारक, श्रेष्ठ सुरवर हैं । । ये चारों निकायों के, अपनी-अपनी परिषद् सहित परिग्रह को ग्रहण करते हैं । ये सभी देव भवन, हस्ती आदि वाहन, रथ आदि अथवा घूमे के विमान आदि यान, पुष्पक आदि विमान, शय्या, भद्रासन, सिंहासन प्रभृति आसन, विविध प्रकार के वस्त्र एवं उत्तम प्रहरण को, अनेक प्रकार की मणियों के पंचरंगी दिव्य भाजनों को, विक्रियालब्धि से इच्छानुसार रूप बनाने वाली कामरूपा अप्सराओं के समूह को, द्वीपों, समुद्रों दिशाओं, विदिशाओं, चैत्यो, वनखण्डों और पर्वतों को, ग्रामों और नगरों को, आरामों, उद्यानों और जंगलों को, कूप, सरोवर, तालाब, वापी - वावड़ी, दीर्घिका - लम्बी वावड़ी, देवकुल, सभा, प्रपा और वस्ती को और बहुत-से कीर्त्तनीय धर्मस्थानों को ममत्वपूर्वक स्वीकार करते हैं । इस प्रकार विपुल द्रव्यवाले परिग्रह को ग्रहण करके इन्द्रों सहित देवगण भी न तृप्ति को और न सन्तुष्टि को अनुभव कर पाते हैं। ये सब देव अत्यन्त तीव्र लोभ से अभिभूत संज्ञावाले हैं, अतः वर्षधरपर्वतों, इषुकार, पर्वत, वृत्तपर्वत, कुण्डलपर्वत, रुचकवर, मानुषोत्तर पर्वत, कालोदधिसमुद्र, लवणसमुद्र, सलिला, ह्रदपति, रतिकर पर्वत, अंजनक पर्वत, दधिमुखपर्वत, अवपात पर्वत, उत्पात पर्वत, काञ्चनक, चित्र-विचित्रपर्वत, यमकवर, शिखरी, कूट आदि में रहनेवाले ये देव भी तृप्ति नहीं पाते । वक्षारों में तथा अकर्मभूमियों में और सुविभक्त भरत, ऐवत आदि पन्द्रह कर्मभूमियों में जो भी मनुष्य निवास करते हैं, जैसे-चक्रवर्ती, वासुदेव, बलदेव, माण्डलिक राजा, ईश्वर - बड़े-बड़े ऐश्वर्यशाली लोग, तलवर, सेनापति, इभ्य, श्रेष्ठी, राष्ट्रिक, पुरोहित, कुमार, दण्डनायक, माडम्बिक, सार्थवाह, कौटुम्बिक और अमात्य, ये सब और इनके अतिरिक्त अन्य मनुष्य परिग्रह का संचय करते हैं । वह परिग्रह अनन्त या परिणामशून्य है, अशरण है, दुःखमय अन्तवाला है, अध्रुव है, अनित्य है, एवं अशाश्वत है, पापकर्मों का मूल है, ज्ञानीजनों के लिए त्याज्य है, विनाश का मूल कारण है, अन्य प्राणियों के वध और बन्धन का कारण है, इस प्रकार वे पूर्वोक्त देव आदि धन, कनक, रत्नों आदि का संचय करते हुए लोभ से ग्रस्त होते हैं और समस्त प्रकार के दुःखों के स्थान इस संसार में परिभ्रमण करते हैं । ९० परिग्रह के लिए बहुत लोग सैकड़ों शिल्प या हुन्नर तथा लेखन से लेकर शकुनिरुतपक्षियों की बोली तक की, गणित की प्रधानता वाली बहत्तर कलाएँ सीखते हैं । नारियाँ रति उत्पन्न करनेवाले चौसठ महिलागुणों को सीखती हैं । कोई असि, कोई मसिकर्म, कोई कृषि करते हैं, कोई वाणिज्य सीखते हैं, कोई व्यवहार की शिक्षा लेते हैं । कोई अर्थशास्त्र - राजनीति आदि की, कोई धनुर्वेद की कोई वशीकरण की शिक्षा ग्रहण करते हैं । इसी प्रकार के परिग्रह के सैकड़ों कारणों में प्रवृत्ति करते हुए मनुष्य जीवनपर्यन्त नाचते रहते हैं । और जिनकी बुद्धि मन्द है, वे परिग्रह का संचय करते हैं । परिग्रह के लिए लोग प्राणियों की हिंसा के कृत्य में प्रवृत्त होते हैं । झूठ बोलते हैं, दूसरों को ठगते हैं, निकृष्ट वस्तु को मिलावट करके उत्कृष्ट
SR No.009784
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size17 MB
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