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________________ प्रश्नव्याकरण- १/४/२० आस्रव अब्रह्म भी देवता, मनुष्य और असुर सहित समस्त लोक के प्राणियों द्वारा प्रार्थनीय है । इसी प्रकार यह चिरकाल से परिचित, अनुगत और दुरन्त है । ८९ अध्ययन- ५- आश्रव - ५ [२१] हे जम्बू ! चौथे अब्रह्म नामक आस्रवद्वार के अनन्तर यह पाँचवाँ परिग्रह है । अनेक मणियों, स्वर्ण, कर्केतन आदि रत्नों, बहुमूल्य सुगंधमय पदार्थ, पुत्र और पत्नी समेत परिवार, दासी- दास, भृतक, प्रेष्य, घोड़े, हाथी, गाय, भैंस, ऊंट, गधा, बकरा और गवेलक, शिबिका, शकट, रथ, यान, युग्य, स्यन्दन, शयन, आसन, वाहन तथा कुप्य, धन, धान्य, पेय पदार्थ, भोजन, आच्छादन, गन्ध, माला, वर्तन - भांडे तथा भवन आदि के अनेक प्रकार के विधानों को ( भोग लेने पर भी ) और हजारों पर्वतों, नगरों, निगमों, जनपदों, महानगरों, द्रोणमुखों, खेट, कर्बटों, मडंबो, संबाहों तथा पत्तनों से सुशोभित भरतक्षेत्र को भोग कर भी अर्थात् सम्पूर्ण भारतवर्ष का आधिपत्य भोग लेने पर भी, तथा - जहाँ के निवासी निर्भय निवास करते हैं ऐसी सागरपर्यन्त पृथ्वी को एकच्छत्र - अखण्ड राज्य करके भोगने पर भी (परिग्रह से तृप्ति नहीं होती ) । परिग्रह वृक्ष सरीखा है । कभी और कहीं जिसका अन्त नहीं आता ऐसी अपरिमित एवं अनन्त तृष्णा रूप महती इच्छा ही अक्षय एवं अशुभ फल वाले इस वृक्ष के मूल हैं । लोभ, कलि और क्रोधादि कषाय इसके महास्कन्ध हैं । चिन्ता, मानसिक सन्ताप आदि की अधिकता से यह विस्तीर्ण शाखाओं वाला है । ऋद्धि, रस और साता रूप गौरव ही इसके विस्तीर्ण शाखा हैं । निकृति, ठगाई या कपट ही इस वृक्ष के त्वचा, पत्र और पुष्प हैं । काम - भोग ही इस वृक्ष के पुष्प और फल हैं । शारीरिक श्रम, मानसिक खेद और कलह ही इसका कम्पायमान अग्रशिखर है । यह परिग्रह राजा-महाराजाओं द्वारा सम्मानित है, बहुत लोगों का हृदय-वल्लभ है और मोक्ष के निर्लोभता रूप मार्ग के लिए अर्गला के समान है, यह अन्तिम अधर्मद्वार है । [२२] उस परिग्रह नामक अधर्म के गुणनिष्पन्न तीस नाम है । वे नाम इस प्रकार है1 परिग्रह, संचय, चय, उपचय, निधान, सम्भार, संकर, आदर, पिण्ड, द्रव्यसार, महेच्छा, प्रतिबन्ध, लोभात्मा, महर्धिका, उपकरण, संरक्षणा, भार, संपातोत्पादक, कलिकरण्ड, प्रविस्तर, अनर्थ, संस्तव, अगुप्ति या अकीर्ति, आयास, अवियोग, अमुक्ति, तृष्णा, अनर्थक, आसक्ति, और असन्तोष है । [२३] उस परिग्रह को लोभ से ग्रस्त परिग्रह के प्रति रुचि रखनेवाले, उत्तम भवनों में और विमानों में निवास करनेवाले ममत्वपूर्वक ग्रहण करते हैं । नाना प्रकार से परिग्रह को संचित करने की बुद्धि वाले देवों के निकाय यथा - असुरकुमार यावत् स्तनितकुमार तथा अणपन्निक, यावत् पतंग और पिशाच, यावत् गन्धर्व, ये महर्द्धिक व्यन्तर देव तथा तिर्यक्लोक में निवास करनेवाले पाँच प्रकार के ज्योतिष्क देव, बृहस्पति, चन्द्र, सूर्य, शुक्र और शनैश्चर, राहु, केतु और बुध, अंगारक, अन्य जो भी ग्रह ज्योतिष्चक्र में संचार करते हैं, केतु, गति में प्रसन्नता अनुभव करने वाले, अट्ठाईस प्रकार के नक्षत्र देवगण, नाना प्रकार के संस्थानवाले तारागण, स्थिर लेश्या अढाई द्वीप से बाहर के ज्योतिष्क और मनुष्य क्षेत्र के भीतर संचार करने
SR No.009784
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size17 MB
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