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________________ आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद होते हैं, न उनमें अंगहीनता होती है, न कुरूपता होती है । वे व्याधि, दुर्भाग्य एवं शोकचिन्ता से मुक्त रहती हैं । ऊँचाई में पुरुषों से कुछ कम ऊँची होती हैं । श्रृंगार के आग के समान और सुन्दर वेश-भूषा से सुशोभित होती हैं । उनके स्तन, जघन, मुख, हाथ, पाँव और नेत्र - सभी कुछ अत्यन्त सुन्दर होते हैं । सौन्दर्य, रूप और यौवन के गुणों से सम्पन्न होती हैं । वे नन्दन वन में विहार करने वाली अप्सराओं सरीखी उत्तरकुरु क्षेत्र की मानवी अप्सराएँ होती हैं । वे आश्चर्यपूर्वक दर्शनीय होती हैं, वे तीन पल्योपम की उत्कृष्ट मनुष्यायु को भोग कर भी कामभोगों से तृप्त नहीं हो पाती और अतृप्त रहकर ही कालधर्म को प्राप्त होती हैं । [२०] जो मनुष्य मैथुनसंज्ञा में अत्यन्त आसक्त हैं और मूढता अथवा से भरे हुए हैं, वे आपस में एक दूसरे का शस्त्रों से घात करते हैं । कोई-कोई विषयरूपी विष की उदीरणा करने वाली परकीय स्त्रियों में प्रवृत्त होकर दूसरों के द्वारा मारे जाते हैं । जब उनकी परस्त्रीलम्पटता प्रकट हो जाती है तब धन का विनाश और स्वजनों का सर्वथा नाश प्राप्त करते हैं, जो परस्त्रियों से विरत नहीं हैं और मैथुनसेवन की वासना से अतीव आसक्त हैं और मूढता या मोह से भरपूर हैं, ऐसे घोड़े, हाथी, बैल, भैंसे और मृग परस्पर लड़ कर एक-दूसरे को मार डालते हैं । मनुष्यगण, बन्दर और पक्षीगण भी मैथुनसंज्ञा के कारण परस्पर विरोधी बन जाते हैं । मित्र शीघ्र ही शत्रु बन जाते हैं । परस्त्रीगामी पुरुष सिद्धांतों को, अहिंसा, सत्य आदि धर्मों को तथा गण को या समाज की मर्यादाओं को भंग कर देते हैं । यहाँ तक कि धर्म और संयमादि गुणों में निरत ब्रह्मचारी पुरुष भी मैथुनसंज्ञा के वशीभूत होकर क्षण भर में चारित्रसंयम से भ्रष्ट हो जाते हैं । बड़े-बड़े यशस्वी और व्रतों का समीचीन रूप से पालन करने वाले भी अपयश और अपकीर्ति के भागी बन जाते हैं । ज्वर आदि रोगों से ग्रस्त तथा कोढ आदि व्याधियों से पीडित प्राणी मैथुनसंज्ञा की तीव्रता की बदौलत रोग और व्याधि की अधिक वृद्धि कर लेते हैं, जो मनुष्य परस्त्री से विरत नहीं हैं, वे दोनों लोको में, दुराराधक होते हैं, इस प्रकार जिनकी बुद्धि तीव्र मोह या मोहनीय कर्म के उदय से नष्ट हो जाती है, वे यावत् अधोगति को प्राप्त होते हैं । ८८ सीता, द्रौपदी, रुक्मिणी, पद्मावती, तारा, काञ्चना, रक्तसुभद्रा, अहिल्या, किन्नरी, स्वर्णगुटिका, सुरूपविद्युन्मती और रोहिणी के लिए पूर्वकाल में मनुष्यों के संहारक जो संग्राम हुए हैं, उनका मूल कारण मैथुन ही था - इनके अतिरिक्त महिलाओं के निमित्त से अन्य संग्राम भी हुए हैं, जो अब्रह्ममूलक थे । अब्रह्म का सेवन करनेवाले इस लोक और परलोक में भी नष्ट होते हैं । मोहवशीभूत प्राणी पर्याप्त और अपर्याप्त, साधारण और प्रत्येकशरीरी जीवों में, अण्डज, पोतज, जरायुज, रसज, संस्वेदिम, उद्भिज और औपपातिक जीवों में, नरक, तिर्यंच, देव और मनुष्यगति के जीवों में, दारुण दशा भोगते हैं तथा अनादि और अनन्त, दीर्घ मार्गवाले, चतुर्गतिक संसार रूपी अटवी में बार-बार परिभ्रमण करते हैं । अब्रह्म रूप अधर्म का यह इहलोकसम्बन्धी और परलोकसम्बन्धी फल- विपाक है । यह अल्पसुखवाला किन्तु बहुत दुःखोंवाला है । यह फल- विपाक अत्यन्त भयंकर है, अत्यधिक पाप-रज से संयुक्त है । बड़ा ही दारुण और कठोर है । असातामय है । हजारों वर्षों में इससे छुटकारा मिलता है, किन्तु इसे भोगे विना छुटकारा नहीं मिलता । ऐसा ज्ञातकुल के नन्दन महावीर तीर्थंकर ने कहा है और अब्रह्म का फल-विपाक प्रतिपादित किया है । यह चौथा
SR No.009784
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size17 MB
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