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________________ प्रश्नव्याकरण- १/५/२३ दिखलाते हैं और परकीय द्रव्य में लालच करते हैं । स्वदार-गमन में शारीरिक एवं मानसिक खेद को तथा परस्त्री की प्राप्ति न होने पर मानसिक पीड़ा को अनुभव करते हैं । कलह - लड़ाई तथा वैर-विरोध करते हैं, अपमान तथा यातनाएँ सहन करते हैं । इच्छाओं और चक्रवर्ती आदि के समान महेच्छाओं रूपी पिपासा से निरन्तर प्यासे बने रहते हैं । तृष्णा तथा गृद्धि तथा लोभ में ग्रस्त रहते हैं । वे त्राणहीन एवं इन्द्रियों तथा मन के निग्रह से रहित होकर क्रोध, मान, माया और लोभ का सेवन करते हैं । ९१ इस निन्दनीय परिग्रह में ही नियम से शल्य, दण्ड, गौरव, कषाय, संज्ञाएँ होती हैं, कामगुण, आस्रवद्वार, इन्द्रियविकार तथा अशुभ लेश्याएँ होती हैं । स्वजनों के साथ संयोग होते हैं और परिग्रहवान् असीम - अनन्त सचिन, अचित्त एवं मिश्र द्रव्यों को ग्रहण करने की इच्छा करते हैं । देवों, मनुष्यों और असुरों सहित इस त्रस - स्थावररूप जगत् में जिनेन्द्र भगवन्तों ने (पूर्वोक्त स्वरूपवाले) परिग्रह का प्रतिपादन किया | ( वास्तव में ) परिग्रह के समान अन्य कोई पाश नहीं है । [२४] परिग्रह में आसक्त प्राणी परलोक में और इस लोक में नष्ट-भ्रष्ट होते हैं । अज्ञानान्धकार में प्रविष्ट होते हैं । तीव्र मोहनीयकर्म के उदय से मोहित मतिवाले, लोभ के वश में पड़े हुए जीव त्रस, स्थावर, सूक्ष्म और बादर पर्यायों में तथा पर्याप्तक और अपर्याप्तक अवस्थाओं में यावत् चार गति वाले संसार- कानन में परिभ्रमण करते हैं । परिग्रह का यह इस लोक सम्बन्धी और परलोक सम्बन्धी फल- विपाक अल्प सुख और अत्यन्त दुःखवाला है । घोर भय से परिपूर्ण है, अत्यन्त कर्म-रज से प्रगाढ है, दारुण है, कठोर है और असाता का हेतु है । हजारों वर्षों में इससे छुटकारा मिलता है । किन्तु इसके फल को नहीं मिलता । भोगे विना छुटकारा इस प्रकार ज्ञातकुलनन्दन महात्मा वीरवर जिनेश्वर देव ने कहा है । अनेक प्रकार की चन्द्रकान्त आदि मणियों, स्वर्ण, कर्केतन आदि रत्नों तथा बहुमूल्य अन्य द्रव्यरूप यह परिग्रह मोक्ष के मार्गरूपमुक्ति-निर्लोभता के लिए अर्गला के समान है । इस प्रकार यह अन्तिम आस्रवद्वार समाप्त हुआ । [२५] इन पूर्वोक्त पाँच आस्रवद्वारों के निमित्त से जीव प्रतिसमय कर्मरूपी रज का संचय करके चार गतिरूप संसार में परिभ्रमण करते रहते हैं । [२६] जो पुण्यहीन प्राणी धर्म को श्रवण नहीं करते अथवा श्रवण करके भी उसका आचरण करने में प्रमाद करते हैं, वे अनन्त काल तक चार गतियों में गमनागमन करते रहेंगे। [२७] जो पुरुष मिथ्यादृष्टि हैं, अधार्मिक हैं, निकाचित कर्मों का बन्ध किया है, वे अनेक तरह से शिक्षा पाने पर भी, धर्मश्रवण तो करते हैं किन्तु आचरण नहीं करते । [२८] जिन भगवान् के वचन समस्त दुःखों का नाश करने के लिए गुणयुक्त मधुर विरेचन औषध हैं, किन्तु निस्वार्थ भाव से दी जानेवाले इस औषध को जो पीना ही नहीं चाहते, उनके लिए क्या किया जा सकता है ? [२९] जो प्राणी पाँच को त्याग कर और पाँच की भावपूर्वक रक्षा करते हैं, वे कर्मरज से सर्वथा रहित होकर सर्वोत्तम सिद्धि प्राप्त करते हैं । अध्ययन - ५ का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
SR No.009784
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size17 MB
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