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आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद
काट दी जाती हैं । फिर उन्हें वधभूमि में ले जाया जाता है और वहाँ तलवार से काटा जाता है । हाथ और पैर काट कर निर्वासित कर दिया जाता है । कई चोरों को आजीवन कारागार में रखा जाता है । परकीय द्रव्य के अपहरण में लुब्ध कई चोरों को सांकल बांध कर एवं पैरों में बेड़ियाँ डाल कर बन्ध कर के उनका धन छीन लिया जाता है ।
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वे चोर स्वजनों द्वारा त्याग दिये जाते हैं । सभी के द्वारा वे तिरस्कृत होते हैं । अतएव सभी की ओर से निराश हो जाते हैं । बहुत-से लोगो के 'धिक्कार से' वे लज्जित होते हैं। उन लज्जाहीन मनुष्यों को निरन्तर भूखा मरना पड़ता है । चोरी के वे अपराधी सर्दी, गर्मी और प्यास की पीड़ा से कराहते रहते हैं । उनका मुख - सहमा हुआ और कान्तिहीन हो जाता है। वे सदा विह्वल या विफल, मलिन और दुर्बल बने रहते हैं । थके-हारे या मुर्झाए रहते हैं, कोईकोई खांसते रहते हैं और अनेक रोगों से ग्रस्त रहते हैं अथवा भोजन भलीभांति न पचने के कारण उनका शरीर पीडित रहता है । उनके नख, केश और दाढी मूंछों के बाल तथा रोम बढ़ जाते हैं । वे कारागार में अपने ही मल-मूत्र में लिप्त रहते हैं । जब इस प्रकार की दुस्सह वेदनाएँ भोगते-भोगते वे, मरने की इच्छा न होने पर भी, मर जाते हैं । उनके शब के पैरों में रस्सी बांध कर किसी गड्ढे में फैंका जाता है । तत्पश्चात् भेड़िया, कुत्ते, सियार, शूकर तथा संडासी के समान मुखवाले अन्य पक्षी अपने मुखों से उनके शब को नोच-चींथ डालते हैं । कई शों को पक्षी खा जाते हैं । कई चोरों के मृत कलेवर में कीड़े पड़ जाते हैं, उनके शरीर सड़-गल जाते हैं । उसके बाद भी अनिष्ट वचनों से उनकी निन्दा की जाती है- अच्छा हुआ जो पापी मर गया । उसकी मृत्यु से सन्तुष्ट हुए लोग उसकी निन्दा करते हैं । इस प्रकार वे पापी चोर अपनी मौत के पश्चात् भी दीर्घकाल तक अपने स्वजनों को लज्जित करते रहते हैं । वे परलोक को प्राप्त होकर नरक में उत्पन्न होते हैं । नरक निरभिराम है और आग से जलते हुए घर के समान अत्यन्त शीत वेदनावाला होता है । असातावेदनीय कर्म की उदीरणा के कारण सैकड़ों दुःखों से व्याप्त है । नरक से उद्वर्त्तन करके फिर तिर्यंचयोनि में जन्म लेते हैं । वहाँ भी वे नरक जैसी असातावेदना को अनुभवते हैं । तिर्यंचयोनि में अनन्त काल भटकते हैं । किसी प्रकार, अनेकों वार नरकगति और लाखों वार तिर्यंचगति में जन्म-मरण करते-करते यदि मनुष्यभव पा लेते हैं तो वहाँ भी नीच कुल में उत्पन्न और अनार्य होते हैं । कदाचित् आर्यकुल में जन्म मिल गया तो वहाँ भी लोकबाह्य होते हैं । पशुओं जैसा जीवन यापन करते हैं, कुशलता से रहित होते हैं, अत्यधिक कामभोगों की तृष्णावाले और अनेकों वार नरक - भवों में उत्पन्न होने के कु-संस्कारों के कारण पापकर्म करने की प्रवृत्ति वाले होते हैं । अतएव संसार में परिभ्रमण करानेवाले अशुभ कर्मों का बन्ध करे हैं । वे धर्मशास्त्र के श्रवण से वंचित रहते हैं । वे अनार्य, क्रूर मिथ्यात्व के पोषक शास्त्रों को अंगीकार करते हैं । एकान्ततः हिंसा में ही उनकी रुचि होती है । इस प्रकार रेशम के कीड़े के समान वे अष्टकर्म रूपी तन्तुओं से अपनी आत्मा को प्रगाढ बन्धनों से जकड़ लेते हैं ।
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नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देव गति में गमनागमन करना संसार सागर की बाह्य परिधि है । जन्म, जरा और मरण के कारण होने वाला गंभीर दुःख ही संसार - सागर का अत्यन्त क्षुब्ध जल है । संसार - सागर में संयोग और वियोग रूपी लहरें उठती रहती हैं । सतत - चिन्ता ही उसका प्रसार है । वध और बन्धन ही उसमें विस्तीर्ण तरंगें हैं । करुणाजनक विलाप तथा