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________________ प्रश्नव्याकरण-१/३/१६ ७९ लोभ की कलकलाहट की ध्वनि की प्रचुरता है । अपमान रूपी फेन होते हैं । तीव्र निन्दा, पुनः पुनः उत्पन्न होनेवाले रोग, वेदना, तिरस्कार, पराभव, अधःपतन, कठोर झिड़कियाँ जिनके कारण प्राप्त होती हैं, ऐसे कठोर ज्ञानावरणीय आदि कर्मों रूपी पाषाणों से उठी हुई तरंगों के समान चंचल है । मृत्यु का भय उस संसार-समुद्र के जल का तल है । वह संसार-सागर कषायरूपी पाताल-कलशों से व्याप्त है । भव-परम्परा ही उसकी विशाल जलराशि है । वह अनन्त है । अपार है । महान् भय रूप है । उसमें प्रत्येक प्राणी को एक दूसरे के द्वारा उत्पन्न होने वाला भय बना रहता है । जिनकी कहीं कोई सीमा नहीं, ऐसी विपुल कामनाओं और कलुषित बुद्धि रूपी पवन आंधी के प्रचण्ड वेग के कारण उत्पन्न तथा आशा और पिपासा रूप पाताल, समुद्रतल से कामरति की प्रचुरता से वह अन्धकारमय हो रहा है । संसार-सागर के जल में प्राणी मोहरूपी भंवरों में भोगरूपी गोलाकार चक्कर लगा रहे हैं, व्याकुल होकर उछल रहे हैं, नीचे गिर रहे हैं । इस संसार-सागर में दौड़धाम करते हुए, व्यसनों से ग्रस्त प्राणियों के रुदनरूपी प्रचण्ड पवन से परस्पर टकराती हुई अमनोज्ञ लहरों से व्याकुल तथा तरंगों से फूटता हुआ एवं चंचल कल्लोलों से व्याप्त जल है । वह प्रमाद रूपी अत्यन्त प्रचण्ड एवं दुष्ट श्वापदों द्वारा सताये गये एवं इधर-उधर घूमते हुए प्राणियों के समूह का विध्वंस करने वाले घोर अनर्थों से परिपूर्ण है । उसमें अज्ञान रूपी भयंकर मच्छ घूमते हैं । अनुपशान्त इन्द्रियों वाले जीवरूप महामगरों की नयी-नयी उत्पन्न होने वाली चेष्टाओं से वह अत्यन्त क्षुब्ध हो रहा है । उसमें सन्तापों का समूह विद्यमान हैं, ऐसा प्राणियों के द्वारा पूर्वसंचित एवं पापकर्मों के उदय से प्राप्त होनेवाला तथा भोगा जानेवाला फल रूपी घूमता हुआ जल-समूह है जो बिजली के समान चंचल है । वह त्राण एवं शरण से रहित है, इसी प्रकार संसार में अपने पापकर्मों का फल भोगने से कोई बच नहीं सकता । संसार-सागर में वृद्धि, रस और सातागौरव रूपी अपहार द्वारा पकड़े हुए एवं कर्मबन्ध से जकड़े हुए प्राणी जब नरकरूप पाताल-तल के सम्मुख पहुँचते हैं तो सन्न और विषण होते हैं, ऐसे प्राणियों की बहुलता वाला है । वह अरति, रति, भय, दीनता, शोक तथा मिथ्यात्व रूपी पर्वतों से व्याप्त है । अनादि सन्तान कर्मबन्धन एवं राग-द्वेष आदि क्लेश रूप कीचड़ के कारण उस संसार-सागर को पार करना अत्यन्त कठिन है । समुद्र में ज्वार के समान संसारसमुद्र में चतुर्गति रूप कुटिल परिवर्तनों से युक्त विस्तीर्ण-ज्वार-आते रहते हैं । हिंसा, असत्य, चोरी. मैथन और परिग्रह रूप आरंभ के करने. कराने और अनमोदने से सचित ज्ञानावरण आदि आठ कर्मों के गुरुतर भार से दबे हुए तथा व्यसन रूपी जलप्रवाह द्वारा दूर फेंके गये प्राणियों के लिए इस संसार-सागर का तल पाना अत्यन्त कठिन है । इसमें प्राणी दुःखों का अनुभव करते हैं । संसार संबधी सुख-दुःख से उत्पन्न होने वाले परिताप के कारण वे कभी ऊपर उठने और कभी डूबने का प्रयत्न करते रहते हैं । यह संसार-सागर चार दिशा रूप चार गतियों के कारण विशाल है । यह अन्तहीन और विस्तृत है । जो जीव संयम में स्थित नहीं, उनके लिए यहाँ कोई आलम्बन नहीं है । चौरासी लाख जीवयोनियों से व्याप्त है । यहाँ अज्ञानान्धकार छाया रहता है और यह अनन्तकाल तक स्थायी है । संसार-सागर उद्वेगप्राप्त-दुःखी प्राणियों का निवास स्थान है । इस संसार में पापकर्मकारी प्राणी-जिस ग्राम, कुल आदि की आयु बांधते हैं वहीं पर वे बन्धु-बान्धवों, स्वजनों और मित्रजनों से परिवर्जित होते हैं, वे सभी के
SR No.009784
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size17 MB
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