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अनुत्तरोपपातिकादशा-३/१/१०
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धन्य कुमार भी जमालि कुमार की तरह गया । विशेषता यही कि धन्य कुमार पैदल ही गया। उसने कहा कि हे भगवन् ! मैं अपनी माता भद्रा सार्थवाहिनी को पूछ कर आता हूं । इसके अनन्तर मैं आपकी सेवा में उपस्थित होकर दीक्षित हो जाऊँगा । उसने अपनी माता से जमालि कि तरह ही पूछा । माता यह सुनकर मूर्छित हो गई । माता-पुत्र में इस विषय में प्रश्नोत्तर हुए । जब वह भद्रा महाबल के समान पुत्र को रोकने के लिये समर्थ न हो सकी तो उसने थावच्चा पुत्र के समान जितशत्रु राजा से पूछा और दीक्षा के लिए छत्र और चामर की याचना की । जितशत्रु राजा ने स्वयं उपस्थित होकर कृष्ण वासुदेव के समान धन्य कुमार का दीक्षा-महोत्सव किया । धन्य कुमार दीक्षित हो गया और ईर्या-समिति, ब्रह्मचर्य आदि सम्पूर्ण गुणों से युक्त होकर विचरने लगा ।
तत्पश्चात् वह धन्य अनगार जिस दिन मुण्डित हुआ, उसी दिन श्रमण भगवान् महावीर की वन्दना और नमस्कार कर कहने लगा कि हे भगवन् ! आपकी आज्ञा से मैं जीवन-पर्यन्त षष्ठ-षष्ठ तप और आचाम्लग्रहण-रूप तप से अपनी आत्मा को भावित करते हुए विचरना चाहता हूं । और षष्ठ के पारण के दिन भी शुद्धौदनादि ग्रहण करना ही मुझ को योग्य है । वह भी पूर्ण रूप से संसृष्ट अर्थात् भोजन में लिप्त हाथों से दिया हुआ ही न कि असंसृष्ट हाथों से, वह भी परित्याग-रूप धर्म वाला हो । उसमें भी वह अन्न हो जिसको अनेक श्रमण, ब्राह्मण, कृपण, अतिथि और वनीपक नहीं चाहते हों । यह सुनकर श्रमण भगवान् महावीरने कहा कि जिस प्रकार तुम्हें सुख हो, करो । किन्तु धर्मकार्य में विलम्ब करना ठीक नहीं । इसके अनन्तर वह धन्य कुमार श्रमण भगवान् महावीर की आज्ञा से आनन्दित और सन्तुष्ट होकर निरन्तर षष्ठ-षष्ठ तपकर्म से जीवन भर अपनी आत्मा की भावना करते हुए विचरण करने लगा ।
इसके अनन्तर वह धन्य अनगार प्रथम-षष्ठ-क्षमण के पारण के दिन पहली पौरुषी में स्वाध्याय करता है । फिर गौतम स्वामी की तरह वह भी भगवान की आज्ञा प्राप्त कर काकन्दी नगरी में जाकर ऊंच, मध्य और नीच सब तरह के कुलों में आचाम्ल के लिए फिरता हुआ जहां उज्झित मिलता था वहीं ग्रहण करता था । उसको बड़े उद्यम से प्राप्त होने वाली, गुरुओं से आज्ञप्त उत्साह के साथ स्वीकार की हुई एषणा-समिति से युक्त भिक्षा में जहां भात मिला, वहां पानी नहीं मिला, तथा जहां पानी मिला, वहां भात नहीं मिला । इस पर भी वह धन्य अनगार कभी दीनता, खेद, क्रोध आदि कलुषता और विषाद प्रकट नहीं करता था, प्रत्युत निरन्तर समाधि-युक्त होकर, प्राप्त योगों में अभ्यास करता हुआ और अप्राप्त योगों की प्राप्ति के लिये प्रयत्न करते हुए चरित्र से जो कुछ भी भिक्षा-वृत्ति से प्राप्त होता था उसको ग्रहण कर काकन्दी नगरी से बाहर आ जाता था और गोतम स्वामी समान आहार दिखाकर भगवान् की आज्ञा से बिना आसक्ति के जिस प्रकार एक सर्प केवल पार्श्व भागों के स्पर्श से बिलमें घुस जाता है इसी प्रकार वह भी बिना किसी विशेष इच्छा के आहार ग्रहण करते था और संयम और तप से अपनी आत्मा को भावित करते हुए विचरण करता था।
श्रमण भगवान् महावीर अन्यदा काकन्दी नगरी के सहस्राम्रवन उद्यान से निकल कर बाहर जनपद-विहार के लिए विचरने लगे | वह धन्य अनगार भगवान् महावीर के तथारूप स्थविरों के पास सामायिकादि एकादश अङ्ग-शास्त्रों का अध्ययन करने लगा । वह संयम और तप से अपने आत्मा की भावना करते हुए विचरता था । तदनु वह धन्य अनगार स्कन्दक