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आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
बात मान लेता तो आज मैं भी इसी तरह श्रेष्ठ प्रासादों में रहता हुआ यावत् अपना समय व्यतीत करता । इसी कारण हे प्रदेशी ! मैंने यह कहा है कि यदि तुम अपना दुराग्रह नहीं छोड़ोगे तो उस लोहभार को ढोने वाले दुराग्रही की तरह तुम्हें भी पश्चात्ताप करना पड़ेगा ।
[७६] इस प्रकार समझाये जाने पर प्रदेशी राजा ने केशी कुमारश्रमण को वन्दना की यावत् निवेदन किया भदन्त ! मैं वैसा कुछ नहीं करूंगा जिससे उस लोहभारवाहक पुरुष की तरह मुझे पश्चात्ताप करना पड़े । आप देवानुप्रिय से केवलिप्रज्ञप्त धर्म सुनना चाहता हूँ । देवानुप्रिय ! जैसे तुम्हें सुख उपजे वैसा करो, परन्तु विलंब मत करो । इसके पश्चात् प्रदेशी की जिज्ञासा-वृत्ति देखकर केशी कुमारश्रमण ने राजा प्रदेशी को धर्मकथा सुनाकर गृहिधर्म का विस्तार से विवेचन किया । राजा गृहस्थधर्म स्वीकार करके सेयविया नगरी की ओर चलने को तत्पर हुआ ।
[७७] तब केशी कुमारश्रमण ने कहा-प्रदेशी ! जानते हो कितने प्रकार के आचार्य होते हैं ? प्रदेशी-हाँ भदन्त ! तीन आचार्य होते हैं-कलाचार्य, शिल्पाचार्य, धर्माचार्य । प्रदेशी ! जानते हो कि इन तीन आचार्यों में से किसकी कैसी विनयप्रतिपत्ति करनी चाहिए ? हाँ भदन्त ! जानता हूँ । कलाचार्य और शिल्पाचार्य के शरीर पर चन्दनादि का लेप और तेल
आदि का मर्दन करना चाहिए, उन्हें स्नान करना चाहिए, उनके सामने पुष्प आदि भेंट रूप में रखना चाहिए, उनके कपड़ों आदि को सुरभि गन्ध से सुगन्धित करना चाहिए, आभूषमों आदि से उन्हें अलंकृत करना चाहिए, आदरपूर्वक भोजन कराना चाहिए और आजीविका के योग्य विपुल प्रीतिदान देना चाहिए, एवं उनके लिये ऐसी आजीविका की व्यवस्था करना चाहिये कि पुत्र-पौत्रादि परम्परा भी जिसका लाभ ले सके । धर्माचार्य के जहाँ भी दर्शन हों, वहीं उनको वन्दना-नमस्कार करना चाहिए, उनका सत्कार-संमान करना चाहिए और कल्याणरूप, मंगलरूप, देवरूप एवं ज्ञानरूप उनकी पर्युपासना करनी चाहिए तथा अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य भोजन-पान से उन्हें प्रतिलाभित करना चाहिए, पडिहारी पीठ, फलक, शय्या-संस्तारक आदि ग्रहण करने के लिये उनसे प्रार्थना करनी चाहिए । प्रदेशी ! इस प्रकार की विनयप्रतिपत्ति जानते हए भी तुम अभी तक मेरे प्रति जो प्रतिकूल व्यवहार एवं प्रवृत्ति करते रहे, उसके लिए क्षमा माँगे बिना ही सेयविया नगरी की ओर चलने के लिये उद्यत हो रहे हो ? ।
प्रदेशी राजा ने यह निवेदन किया-हे भदन्त ! आपका कथन योग्य है किन्तु मेरा इस प्रकार यह आध्यात्मिक यावत् संकल्प है कि अभी तक आप देवानुप्रिय के प्रति मैंने जो प्रतिकूल यावत् व्यवहार किया है, उसके लिये आगामी कल, रात्रि के प्रभात रूप में परिवर्तित होने, उत्पलों और कमनीय कमलों के उन्मीलित और विकसित होने, प्रभात के पांडुर होने, रक्तशोक, पलाशपुष्प, शुकमुख, गुंजाफल के अर्धभाग जैसे लाल, सरोवर में स्थित कमलिनीकुलों के विकासक सूर्य का उदय होने एवं जाज्वल्यमान तेज सहित सहस्ररश्मि दिनकर के प्रकाशित होने पर अन्तःपुर-परिवार सहित आप देवानुप्रिय की वन्दना-नमस्कार करने और अवमानना रूप अपने अपराध की वारंवार विनयपूर्वक क्षमापना के लिये सेवा में उपस्थित होऊं । ऐसा निवेदन कर वह जिस ओर से आया था, उसी ओर लौट गया । दूसरे दिन जब रात्रि के प्रभात रूप में रूपान्तरित होने यावत् जाज्वल्यमान तेज सहित दिनकर के प्रकाशित होने पर प्रदेशी राजा हष्ट-तुष्ट यावत् विकसितहृदय होता हुआ कोणिक राजा की तरह दर्शनार्थ निकला । उसने अन्तःपुर-परिवार आदि के साथ पांच प्रकार के अभिगमपूर्वक वन्दन-नमस्कार किया और यथाविधि विनयपूर्वक अपने प्रतिकूल आचरण के लिये वारंवार क्षमायाचना की ।