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________________ राजप्रश्नीय-७५ २६५ और पार होने के लिये रास्ता न मिले, ऐसी एक बहुत बड़ी अटवी में जा पहुँचे । जब वे लोग उस निर्जन अटवी में कुछ आगे बढ़े तो किसी स्थान पर उन्होंने इधरउधर सारयुक्त लोहे से व्याप्त लम्बी-चौड़ी और गहरी एक विशाल लोहे की खान देखी । वहाँ लोहा खूब बिखरा पड़ा था । उस खान को देखकर हर्षित, संतुष्ट यावत् विकसितहृदय होकर उन्होंने आपस में एक दूसरे को बुलाया और कहा, यह लोहा हमारे लिये इष्ट, प्रिय यावत् मनोज्ञ है, अतः देवानुप्रियो ! हमें इस लोहे के भार को बांध लेना चाहिए । इस विचार को एक दूसरे ने स्वीकार करके लोहे का भारा बांध लिया । अटवी में आगे चल दिये । तत्पश्चात् आगे चलते-चलते वे लोग जब उस निर्जन यावत् अटवी में एक स्थान पर पहुँचे तब उन्होंने सीसे से भरी हुई एक विशाल सीसे की खान देखी, यावत् एक दूसरे को बुलाकर कहा-हमें इस सीसे का संग्रह करना यावत् लाभदायक है । थोड़े से सीसे के बदले हम बहुत-सा लोहा ले सकते हैं । इसलिये हमें इस लोहे के भार को छोड़कर सीसे का पोटला बांध लेना योग्य है । ऐसा कहकर लोहे को छोड़कर सीसे के भार को बांध लिया । किन्तु उनमें से एक व्यक्ति लोहे को छोड़कर सीसे के भार को बांधने के लिये तैयार नहीं हआ । तब दूसरे व्यक्तियों ने अपने उस साथी से कहा-देवानुप्रिय ! हमें लोहे की अपेक्षा इस सीसे का संग्रह करना अधिक अच्छा है, यावत् हम इस थोड़े से सीसे से बहुत-सा लोहा प्राप्त कर सकते हैं । अतएव देवानुप्रिय ! इस लोहे को छोड़कर सीसे का भार बांध लो । तब उस व्यक्ति ने कहा-देवानुप्रियो ! मैं इस लोहे के भार को बहत दूर से लादे चला आ रहा है । मैंने इस लोहे को बहुत ही कसकर बांधा है । देवानप्रियो ! मैंने इस लोहे को अशिथिल बंधन से बाँधा है । देवानुप्रियो ! मैंने इस लोहे को अत्यधिक प्रगाढ़ बंधन से बांधा है । इसलिए मैं इस लोहे को छोड़कर सीसे के भार को नहीं बांध सकता हूँ । तब दूसरे साथियों ने उस व्यक्ति को अनुकूल-प्रतिकूल सभी तरह की आख्यापना से, प्रज्ञापना से समझाया । लेकिन जब वे उस पुरुष को समझाने-बुझाने में समर्थ नहीं हए तो अनुक्रम से आगे-आगे चलते गये और वहाँ-वहाँ पहँचकर उन्होंने तांबे की, चांदी की, सोने की, रत्नों की और हीरों की खाने देखीं एवं इनको जैसे-जैसे बहुमूल्य वस्तुएँ मिलती गईं, वैसे-वैसे पहलेपहले के अल्प मूल्य वाले तांबे आदि को छोड़कर अधिक-अधिक मूल्यवाली वस्तुओं को बांधते गये । सभी खानों पर उन्होंने अपने उस दुराग्रही साथी को समझाया किन्तु उसके दुगाट को छुड़ाने में वे समर्थ नहीं हुए । - इसके बाद वे सभी व्यक्ति जहाँ अपना जनपद-देश था अपने-अपने नगर थे, वहाँ आये । उन्होंने हीरों को बेचा । उससे प्राप्त धन से अनेक दास-दासी, गाय, भैंस और भेड़ों को खरीदा, बड़े-बड़े आठ-आठ मंजिल के ऊँचे भवन बनवाये और इसके बाद स्नान, बलिकर्म आदि करके उन श्रेष्ठ प्रासादों के ऊपरी भागों में बैठकर बजते हुए मृदंग आदि वाद्यों एवं उत्तम तरुणियों द्वारा की जा रही नृत्य-गान युक्त बत्तीस प्रकार की नाट्य लीलाओं को देखते तथा साथ ही इष्ट शब्द, स्पर्श यावत् व्यतीत करने लगे । वह लोहवाहक पुरुष भी लोहभार को लेकर अपने नगर में आया । उस लोहभार के लोहे को बेचा । किन्तु अल्प मूल्य वाला होने से उसे थोड़ा-सा धन मिला । उस पुरुष ने अपने साथियों को श्रेष्ठ प्रासादों के ऊपर रहते हुए यावत् अपना समय बिताते हुए देखा । देखकर अपने आपसे कहने लगा-अरे ! मैं अधन्य, पुण्यहीन, अकृतार्थ, शुभलक्षणों से रहित, श्री-ह्री से वर्जित, हीनपुण्य चातुर्दशिक, दुरंत-प्रान्त लक्षण वाला कुलक्षणी हूँ । यदि उन मित्रों, ज्ञातिजनों और अपने हितैषियों की
SR No.009784
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size17 MB
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