________________
राजप्रश्नीय-७८
२६७
[७८] तत्पश्चात् केशी कुमारश्रमण ने प्रदेशी राजा, सूर्यकान्ता आदि रानियों और उस अति विशाल परिषद् को यावत् धर्मकथा सुनाई । इसके बाद प्रदेशी राजा धर्मदेशना सुन कर
और उसे हृदय में धारण करके अपने आसन से उठा एवं केशी कुमारश्रमण को वन्दन-नमस्कार किया । सेयविया नगरी की ओर चलने के लिये उद्यत हआ । केशी कुमार श्रमण ने प्रदेशी राजा से कहा-जैसे वनखण्ड अथवा नाट्यशाला अथवा इक्षुवाड अथवा खलवाड पूर्व में रमणीय होकर पश्चात् अरमणीय हो जाते हैं, उस प्रकार तुम पहले रमणीय होकर बाद में अरमणीय मत हो जाना । भदन्त ! यह कैसे कि वनखण्ड आदि पूर्व में रमणीय होकर बाद में अरमणीय हो जाते हैं ? प्रदेशी ! वनखण्ड जब तक हरे-भरे पत्तों, पुष्पों, फलों से सम्पन्न
और अतिशय सुहावनी सघन छाया एवं हरियाली से व्याप्त होता है तब तक अपनी शोभा से अतीव-अतीव सुशोभित होता हुआ रमणीय लगता है । लेकिन वही वनखण्ड पत्तों, फूलों, फलों और नाममात्र की भी हरियाली नहीं रहने से हराभरा, देदीप्यमान न होकर कुरूप, भयावना दिखने लगता है तब सूखे वृक्ष की तरह छाल-पत्तों के जीर्ण-शीर्ण हो जाने, झर जाने, सड़ जाने, पीले और म्लान हो जाने से रमणीय नहीं रहता है । इसी प्रकार नाट्यशाला भी जब तक संगीत-गान होता रहता है, बाजे बजते रहते हैं, नृत्य होते रहते हैं, लोगों के हास्य से व्याप्त रहती है और विविध प्रकार की रमतें होती रहती हैं तब तक रमणीय लगती है, किन्तु जब उसी नाट्यशाला में गीत नहीं गाये जा रहे हों यावत् क्रीड़ायें नहीं हो रही हों, तब वही नाट्यशाला असुहावनी हो जाती है ।
इसी तरह प्रदेशी! जब तक इक्षुवाड़ में ईख कटती हो, टूटती हो, पेरी जाती हो, लोग उसका रस पीते हों, कोई उसे लेते-देते हों, तब तक वह इक्षुवाड़ रमणीय लगता है । लेकिन जब उसी इक्षुवाड़ में ईख न कटती हो आदि तब वही मन को अरमणीय, अनिष्टकर लगने
है । इसी प्रकार प्रदेशी ! जब तक खलवाड में धान्य के ढेर लगे रहते है. उडावनी होती रहती है. धान्य का मर्दन होता रहता है. तिल आदि पेरे जाते हैं. लोग एक साथ मिल भोजन खाते-पीते, देते-लेते हैं, तब तक वह रमणीय मालूम होता है, लेकिन जब धान्य के ढेर आदि नहीं रहते तब वही अरमणीय दिखने लगता है । इसीलिए हे प्रदेशी ! मैंने यह कहा है कि तुम पहले रमणीय होकर बाद में अरमणीय मत हो जाना, जैसे कि वनखंड आदि हो जाते हैं ।
तब प्रदेशी राजा ने निवेदन किया-भदन्त ! आप द्वारा दिये गये वनखण्ड यावत् खलवाड़ के उदाहरणों की तरह मैं पहले रमणीय होकर बाद में अरमणीय नहीं बनूंगा । क्योंकि मैंने यह विचार किया है कि सेयवियानगरी आदि सात हजार ग्रामों के चार विभाग करूंगा । उनमें से एक भाग राज्य की व्यवस्था और रक्षण के लिए बल और वाहन के लिए दूंगा, एक भाग प्रजा के पालन हेतु कोठार में अन्न आदि के लिये रखूगा, एक भाग अंतःपुर के निर्वाह
और रक्षा के लिये दूंगा और शेष एक भाग से एक विशाल कूटाकार शाला बनवाऊंगा और फिर बहुत से पुरुषों को भोजन, वेतन और दैनिक मजदूरी पर नियुक्त कर प्रतिदिन विपुल मात्रा में अशन, पान, खादिम स्वादिम रूप चारों प्रकार का आहार बनवाकर अनेक श्रमणों, माहनों, भिक्षुओं यात्रियों और पथिकों को देते हुए एवं शीलव्रत, गुणव्रत, विरमण, प्रत्याख्यान, पोषधोपवास आदि यावत् अपना जीवनयापन करूंगा, ऐसा कहकर जिस दिशा से आया था, वापस उसी ओर लौट गया ।
[७९] तत्पश्चात् प्रदेशी राजा ने अगले दिन यावत् जाज्वल्यमान तेजसहित सूर्य के
A