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________________ औपपातिक-५५ २०३ [५५] भगवन् ! क्या सयोगी सिद्ध होते हैं ? यावत् सब दुःखों का अन्त करते हैं ? गौतम ! ऐसा नहीं होता । वे सबसे पहले पर्याप्त, संज्ञी, पंचेन्द्रिय जीव के जघन्य मनोयोग के नीचे के स्तर से असंख्यातगुणहीन मनोयोग का निरोध करते हैं । उसके बाद पर्याप्त बेइन्द्रिय जीव के जघन्य वचन-योग के नीचे के स्तर से असंख्यातगुणहीन वचन-योग का निरोध करते हैं । तदनन्तर अपर्याप्त सूक्ष्म पनक जीव के जघन्य योग के नीचे के स्तर से असंख्यात गुणहीन काय-योग का निरोध करते हैं । इस उपाय या उपक्रम द्वारा वे पहले मनोयोग का निरोध करते हैं । फिर वचन-योग का निरोध करते हैं । काय-योग का निरोध करते हैं । फिर सर्वथा योगनिरोध करते हैं । इस प्रकार-योग निरोध कर वे अयोगत्व प्राप्त करते हैं । फिर ईषत्स्पृष्ट पांच ह्रस्व अक्षर के उच्चारण के असंख्यात कालवर्ती अन्तर्मुहुर्त तक होने वाली शैलेशी अवस्था प्राप्त करते हैं । उस शैलेशी-काल में पूर्वरचित गुण-श्रेणी के रूप में रहे कर्मों को असंख्यात गुण-श्रेणियों में अनन्त कर्माशों के रूप में क्षीण करते हुए वेदनीय आयुष्य, नाम तथा गोत्र-एक साथ क्षय करते हैं। फिर औदारिक, तैजस तथा कार्मण शरीर का पूर्ण रूप से परित्याग कर देते हैं । वैसा कर ऋजु श्रेणिप्रतिपन्न हो अस्पृश्यमान गति द्वारा एक समय में ऊर्ध्व-गमन कर साकारोपयोग में सिद्ध होते हैं । वहाँ सादि, अपर्यवसित, अशरीर, जीवधन, आत्मप्रदेश युक्त, ज्ञान तथा दर्शन उपयोग सहित, निष्ठितार्थ, निरेजन, नीरज, निर्मल, वितिमिर, विशुद्ध, शाश्वतकाल पर्यन्त संस्थित रहते हैं | __भगवान् ! वहाँ वे सिद्ध होते हैं, सादि-अपर्यवसित, यावत् शाश्वतकालपर्यन्त स्थित रहते हैं-इत्यादि आप किस आशय से फरमाते हैं ? गौतम ! जैसे अग्नि से दग्ध बीजों की पुनः अंकुरों के रूप में उत्पत्ति नहीं होती, उसी प्रकार कर्म-बीज दग्ध होने के कारण सिद्धों की भी फिर जन्मोत्पत्ति नहीं होती । गौतम ! मैं इसी आशय से यह कह रहा हूँ कि सिद्ध सादि, अपर्यवसित...होते हैं । भगवन् ! सिद्ध होते हैं ? गौतम ! वे वज्र-कृषभ-नाराच संहनन में सिद्ध होते हैं । भगवन् ! सिद्ध होते हुए जीव किस संस्थान में सिद्ध होते हैं ? गौतम ! छह संस्थानों में से किसी भी संस्थान में सिद्ध हो सकते हैं । भगवन् ! सिद्ध होते हुए जीव कितनी अवगाहना में सिद्ध होते हैं ? गौतम ! जघन्य सात हाथ तथा उत्कृष्ट- पाँच सौ धनुष की अवगाहना में सिद्ध होते हैं । भगवन् ! सिद्ध होते हुए जीव कितने आयुष्य में सिद्ध होते हैं ? गौतम ! कम से कम आठ वर्ष से कुछ अधिक आयुष्य में तथा अधिक से अधिक करोड़ पूर्व के आयुष्य में सिद्ध होते हैं । भगवन् ! क्या इस रत्नप्रभा पृथ्वी के नीचे सिद्ध निवास करते हैं ? नहीं, ऐसा अर्थठीक नहीं है । रत्नप्रभा के साथ-साथ शर्कराप्रभा, बालुकाप्रभा, पङ्कप्रभा, तमःप्रभा तथा तमस्तमःप्रभा के सम्बन्ध में ऐसा ही समझना चाहिए । भगवन् ! क्या सिद्ध सौधर्मकल्प के नीचे निवास करते हैं ? नहीं, ऐसा अभिप्राय ठीक नहीं है । ईशान, सनत्कुमार यावत् अच्युत तक, ग्रैवेयक विमानों तथा अनुत्तर विमानों के सम्बन्ध में भी ऐसा ही समझना चाहिए । भगवन् ! क्या सिद्ध ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी के नीचे निवास करते हैं ? नहीं, ऐसा अभिप्राय ठीक नहीं है । भगवन् ! फिर सिद्ध कहाँ निवास करते हैं ? गौतम ! इस रत्नप्रभा भूमि के बहुसम रमणीय भूभाग से ऊपर, चन्द्र, सूर्य, ग्रहगण, नक्षत्र तथा तारों के भवनों से बहुत योजन, बहुत सैकड़ों योजन, बहुत हजारों योजन, बहुत लाखों योजन, बहुत करोड़ों योजन तथा बहुत क्रोड़ाक्रोड़ योजन से ऊर्ध्वतर सौधर्म, ईशान, सनत्कुमार, माहेन्द्र, ब्रह्म, लान्तक, महाशुक्र,
SR No.009784
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size17 MB
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