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________________ २०४ आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद सहस्रार, आनत, प्राणत, आरण, अच्युत कल्प तथा तीन सौ अठारह ग्रैवेयक विमान-आवास से भी ऊपर विजय, वैजयन्त, जयन्त, अपराजित, और सर्वार्थसिद्ध महाविमान के सर्वोच्च शिखर के अग्रभाग से बारह योजन के अन्तर पर ऊपर ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी कही गई है । वह पृथ्वी पैतालीस लाख योजन लम्बी तथा चौड़ी है । उसकी परिधि एक करोड़ बयालीस लाख तीस हजार दो सौ उनचास योजन से कुछ अधिक है । ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी अपने ठीक मध्य भाग में आठ योजन क्षेत्र में आठ योजन मोटी है । तत्पश्चात् मोटेपन में क्रमशः कुछ कुछ कम होती हुई सबसे अन्तिम किनारों पर मक्खी की पाँख से पतली है । उन अन्तिम किनारों की मोटाई अंगुल के असंख्यातवें भाग के तुल्य है ।। ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी के बारह नाम बतलाये गये हैं :-ईषत्, ईषत्प्राग्भारा, तनु, तनुतनु, सिद्धि, सिद्धालय, मुक्ति, मुक्तालय, लोकाग्र, लोकाग्रस्तूपिका, लोकाग्रपतिबोधना और सर्वप्राणभूतजीवसत्त्वसुखावहा । ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी दर्पणतल के जैसी निर्मल, सोल्लिय पुष्प, कमलनाल, जलकण, तुपार, गाय के दूध तथा हार के समान श्वेत वर्णयुक्त है । वह उलटे छत्र जैसे आकार में अवस्थित है । वह अर्जुन स्वर्ण जैसी द्युति लिये हुए है । वह आकाश या स्फटिक जैसी स्वच्छ, श्लक्ष्ण कोमल परमाणु-स्कन्धों से निष्पन्न होने के कारण कोमल तन्तुओं से बुने हुए वस्त्र के समान मुलायम, लष्ट, ललित आकृतियुक्त, घृष्ट, मृष्ट, नीरज, निर्मल, निष्पंक शोभायुक्त, समरीचिका, प्रासादीय, दर्शनीय, अभिरूप, तथा प्रतिरूप है । ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी के तल से उत्सोधांगुल द्वारा एक योजन पर लोकान्त है । उस योजन के ऊपर के कोस के छठे भाग पर सिद्ध भगवान्, जो सादि, अपर्यवसित हैं, जो जन्म, बुढ़ापा, मृत्यु आदि अनेक योनियों की वेदना, संसार के भीषण दुःख, पुनः पुनः होनेवाले गर्भवास रूप प्रपंच अतिक्रान्त कर चुके हैं, लाँघ चुके हैं, अपने शाश्वत, भविष्य में सदा सुस्थिर स्वरूप में संस्थित रहते हैं । [५६] सिद्ध किस स्थान पर प्रतिहत हैं- वे कहाँ प्रतिष्ठित हैं ? वे यहाँ से देह को त्याग कर कहाँ जाकर सिद्ध होते हैं ? [५७] सिद्ध लोक के अग्रभाग में प्रतिष्ठित हैं अतः अलोक मे जाने में प्रतिहत हैं । इस मर्त्यलोक में ही देह का त्याग कर वे सिद्ध-स्थान में जाकर सिद्ध होते हैं । [५८] देह का त्याग करते समय अन्तिम समय में जो प्रदेशघन आकार, वही आकार सिद्ध स्थान में रहता है । [५९] अन्तिम भव में दीर्घ या ह्रस्व जैसा भी आकार होता है, उससे तिहाई भाग कम में सिद्धों की अवगाहना होती है । ... [६०] सिद्धों की उत्कृष्ट अवगाहना तीन सौ तैतीस धनुष तथा तिहाई धनुष होती है, सर्वज्ञों ने ऐसा बतलाया है । [६१] सिद्धों की मध्यम अवगाहना चार हाथ तथा तिहाई भाग कम एक हाथ होती है, ऐसा सर्वज्ञों ने निरूपित किया है । [६२] सिद्धों की जघन्य अवगाहना एक हाथ तथा आठ अंगुल होती है, ऐसा सर्वज्ञों द्वारा भाषित है । [६३] सिद्ध अन्तिम भव की अवगाहना से तिहाई भाग कम अवगाहनायुक्त होते हैं। जो वार्धक्य और मृत्यु से विप्रमुक्त हो गये हैं उनके संस्थान किसी भी लौकिक आकार से नहीं मिलता । [६४] जहाँ एक सिद्ध है, वहाँ भव-क्षय हो जाने से मुक्त हुए अनन्त सिद्ध हैं, जो
SR No.009784
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size17 MB
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