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औपपातिक-१९
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२०. दृष्ट-लाभ, २१. अदृष्ट-लाभ, २२. पृष्ट-लाभ, २३. अपृष्टलाभ, २४. भिक्षालाभ, २५. अभिक्षा-लाभ, २६. अन्न-ग्लायक, २७. उपनिहित, २८. परिमितपिण्डपातिक, २९. शुद्धषणिक, ३०. संख्यादत्तिक-यह भिक्षाचर्या का विस्तार है ।
रसपरित्याग क्या है-अनेक प्रकार का है, जैसे-१. निर्विकृतिक, २. प्रणीत रसपरित्याग, ३. आयंबिल, ४. आयामसिक्थभोजी, ५. अरसाहार, ६. विरसाहार, ७. अन्ताहार, ८. प्रान्ताहार, ९. रूक्षाहार-यह रस-परित्याग का विश्लेषण है । काय-क्लेश क्या है-अनेक प्रकार का है, जैसे-१. स्थानस्थितिक, २. उत्कृटुकासनिक, ३. प्रतिमास्थायी, ४. वीरासनिक ५. नैषधिक, ६. आतापक, ७. अप्रावृतक, ८. अकण्डूयक, ९. अनिष्ठीवक, १०. सर्वगात्र-परिकर्म विभूषाविप्रमुक्त-यह काय-क्लेश का विस्तार है । भगवान् महावीर के श्रमण उक्त रूप में काय-क्लेश तप का अनुष्ठान करते थे ।
प्रतिसंलीनता क्या है-चार प्रकार की है-१. इन्द्रिय-प्रतिसंलीनता, २. कषायप्रतिसंलीनना, ३. योग प्रतिसंलीनता, ४. विविक्त-शयनासन-सेवनता
इन्द्रिय-प्रतिसंलीनता क्या है-पाँच प्रकार की है, १. श्रोत्रेन्द्रिय-विषय-प्रचार-निरोध२. चक्षुरिन्द्रिय-विषय-प्रचार-निरोध, ३. घ्राणेन्द्रिय-विषय-प्रचार-निरोध, ४. जिह्वेन्द्रिय-विषयप्रचार-निरोध, ५. स्पर्शेन्द्रिय-विषय-प्रचार-निरोध । यह इन्द्रिय-प्रतिसंलीनता का विवेचन है । कषाय-प्रतिसंलीनता क्या है- चार प्रकार की है । १. क्रोध के उदय का निरोध, २. मान के उदय का निरोध, ३. माया के उदय का निरोध, ४. लोभ के उदय का निरोध-यह कषायप्रतिसंलीनता का विवेचन है ।
योग-प्रतिसंलीनता क्या है-तीन प्रकार की है-१. मनोयोग-प्रतिसंलीनता, २. वाग्योगप्रतिसंलीनता तथा ३. काययोग-प्रतिसंलीनता । मनोयोग-प्रतिसंलीनता क्या है ? अकुशलमन का निरोध, अथवा कुशल मन का प्रवर्तन करना, वाग्योग-प्रतिसंलीनता क्या है ? अकुशल वचन का निरोध और कुशल वचन का अभ्यास करना वाग्योग-प्रतिसंलीनता है । काययोग-प्रतिसंलीनता क्या है ? हाथ, पैर आदि सुसमाहित कर, कछुए के सदृश अपनी इन्द्रियों को गुप्त कर, सारे शरीर को संवृत कर-सुस्थिरं होना काययोग-प्रतिसंलीनता है । यह योग-प्रतिसंलीनता का विवेचन है । विविक्त-शय्यासन-सेवनता क्या है ? आराम, पुष्पवाटिका, उद्यान, देवकुल, छतरियाँ, सभा, प्रपा, पणित-गृह-गोदाम, पणितशाला, ऐसे स्थानों में, जो स्त्री, पशु तथा नपुंसक के संसर्ग से रहित हो, प्रासुक, अचित्त, एषणीय, निर्दोष पीठ, फलक, शय्या, आस्तरण प्राप्त कर विहरण करना विविक्त-शय्यासन-सेवनता है । यह प्रतिसंलीनता का विवेचन है, जिसके साथ बाह्य तप का वर्णन सम्पन्न होता है । श्रमण भगवान् महावीर के अन्तेवासी अनगार उपर्युक्त विविध प्रकार के बाह्य तप के अनुष्ठाता थे ।
[२०] आभ्यन्तर तप क्या है-आभ्यन्तर तप छह प्रकार का कहा गया है-१. प्रायश्चित्त, २. विनय, ३. वैयावृत्त्य, ४. स्वाध्याय, ५. ध्यान तथा ६. व्युत्सर्ग
. प्रायश्चित्त क्या है प्रायश्चित्त दश प्रकार का कहा गया है, १. आलोचनाह, २. प्रतिक्रमणार्ह, ३. तदुभयार्ह, ४. विवेकार्ह, ५. व्युत्सर्गार्ह, ६. तपोऽर्ह, ७. छेदार्ह, ८. मूलार्ह, ९. अनवस्थाप्याह, १०. पाराञ्चिकार्ह ।
विनय क्या है-सात प्रकार का है-ज्ञान-विनय, दर्शन-विनय, चारित्र-विनय, मनोविनय, वचन-विनय, काय-विनय, लोकोपचार-विनय । ज्ञान-विनय क्या है-पाँच भेद हैं-आभिनिवोधिक ज्ञान विनय, श्रुतज्ञान-विनय, अवधिज्ञान-विनय, मनःपर्यव-ज्ञान-विनय, केवलज्ञान-विनय ।