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विपाकश्रुत- १/९/३३
सम्माननीय था । उसकी कृष्णश्री नाम की भार्या थी । उस दत्त गाथापति की पुत्री तथा कृष्णश्री की आत्मजा देवदत्ता नाम की बालिका थी; जो अन्यून एवं निर्दोष इन्द्रियों से युक्त सुन्दर शरीरवाली थी ।
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उस काल उस समय में वहाँ श्रमण भगवान् महावीर पधारे यावत् उनकी धर्मदेशना सुनकर राजा व परिषद् वापिस चले गये । उस काल, उस समय भगवान् के ज्येष्ठ शिष्य गौतमस्वामी बेले के पारणे के निमित्त भिक्षार्थ नगर में गये यावत् राजमार्ग में पधारे । वहाँ पर वे हस्तियों, अश्वों और पुरुषों को देखते हैं, और उन सबके बीच उन्होंने अवकोटक बन्धन से बंधी हुई, कटे हुए कर्ण तथा नाकवाली यावत् ऐसी सूली पर भेदी जानेवाली एक स्त्री को देखा और देखकर उनके मन में यह संकल्प उत्पन्न हुआ कि यह नरकतुल्य वेदना भोग रही है । यावत् पूर्ववत् भिक्षा लेकर नगर से निकले और भगवान् के पास आकर इस प्रकार निवेदन करने लगे कि भदन्त ! यह स्त्री पूर्वभव में कौन थी ?
गौतम ! उस काल और उस समय में इसी जम्बूद्वीप अन्तर्गत् भारतवर्ष में सुप्रतिष्ठ नाम का एक क्रुद्ध, स्तिमित व समृद्ध नगर था । वहाँ पर महासेन राजा थे । उसके अन्तःपुर
धारिणी आदि एक हजार रानियाँ थीं । महाराज महासेन का पुत्र और महारानी धारिणी का आत्मज सिंहसेन नामक राजकुमार था जो अन्यून पांचों निर्दोष इन्द्रियोंवाला व युवराजपद से अलंकृत था । तदनन्तर सिंहसेन राजकुमार के माता-पिता ने एक बार किसी समय पांचसौ सुविशाल प्रासादावतंसक बनवाये । किसी अन्य समय उन्होंने सिंहसेन राजकुमार का श्यामा आदि पांच सौ सुन्दर राजकन्याओं के साथ एक दिन में विवाह कर दिया । पांच सौ - पांच सौ वस्तुओं का प्रीतिदान दिया । राजकुमार सिंहसेन श्यामाप्रमुख उन पांच सौ राजकन्याओं के साथ प्रासादों में रमण करता हुआ सानन्द समय व्यतीत करने लगा ।
तत्पश्चात् किसी समय राजा महासेन कालधर्म को प्राप्त हुए । राजकुमार सिंहसेन ने निःसरण किया । तत्पश्चात् वह राजा बन गया । तदनन्तर महाराजा सिंहसेन श्यामादेवी में मूर्च्छित, गृद्ध, ग्रथित व अध्युपपन्न होकर अन्य देवियों का न आदर करता है और न उनका ध्यान ही रखता है । इसके विपरीत उनका अनादर व विस्मरण करके सानंद समय यापन कर रहा है । तत्पश्चात् उन एक कम पांच सौ देवियों की एक कम पांच सौ माताओं को जब इस वृत्तान्त का पता लगा कि - 'राजा, सिंहसेन श्यामादेवी में मूर्च्छित, गृद्ध, ग्रथित व अध्युपपन्न होकर हमारी कन्याओं का न तो आदर करता और न ध्यान ही रखता है, अपितु उनका अनादर व विस्मरण करता है; तब उन्होंने मिलकर निश्चय किया कि हमारे लिये यही उचित है कि हम श्यामादेवी को अग्नि के प्रयोग से, विष के प्रयोग से अथवा शस्त्र के प्रयोग से जीवन रहित कर डालें । इस तरह विचार करने के अनंतर अन्तर, छिद्र, की प्रतीक्षा करती हुई समय बिताने लगीं ।
इधर श्यामादेवी को भी इस षड्यन्त्र का पता लग गया । जब उसे यह वृत्तान्त विदित हुआ तब वह इस प्रकार विचार करने लगी- मेरी एक कम पांच सौ सपत्नियों की एक कम पांच सौ माताएं - 'महाराजा सिंहसेन श्यामा में अत्यन्त आसक्त होकर हमारी पुत्रियों का आदर नहीं करते, यह जानकर एकत्रित हुई और 'अग्नि, शस्त्र या विष के प्रयोग से श्यामा के जीवन का अन्त कर देना ही हमारे लिए श्रेष्ठ है' ऐसा विचार कर, वे अवसर की खोज में हैं । जब ऐसा है तो न जाने वे किस कुमौत से मुझे मारें ? ऐसा विचार कर वह श्यामा भीत, त्रस्त,