________________
१५०
आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
उद्विग्न व भयभीत हो उठी और जहाँ कोपभवन था वहाँ आई । आकर मानसिक संकल्पों के विफल रहने से मन में निराश होकर आर्त ध्यान करने लगी । तदनन्तर सिंहसेन राजा इस वृत्तान्त से अवगत हुआ और जहाँ कोपगृह था और जहां श्यामादेवी थी वहाँ पर आया । जिसके मानसिक संकल्प विफल हो गये हैं, जो निराश व चिन्तित हो रही है, ऐसी निस्तेज श्यामादेवी को देखकर कहा-हे देवानुप्रिये ! तू क्यों इस तरह अपहृतमनःसंकल्पा होकर चिन्तित हो रही है ?
सिंहसेन राजा के द्वारा इस प्रकार कहे जाने पर दूध के उफान के समान क्रुद्ध हुई अर्थात् क्रोधयुक्त प्रबल वचनों से सिंह राजा के प्रति इस प्रकार बोली-हे स्वामिन् ! मेरी एक कम पांच सौ सपत्नियों की एक कम पांच सौ मातें इस वृत्तान्त को जानकर इकट्ठी होकर एक दूसरे को इस प्रकार कहने लगीं-महाराज सिंहसेन श्यामादेवी में अत्यन्त आसक्त, गृद्ध, ग्रथित व अध्युपपन्न हुए हमारी कन्याओं का आदर सत्कार नहीं करते हैं । उनका ध्यान भी नहीं रखते हैं। प्रत्युत उनका अनादर व विस्मरण करते हुए समय-यापन कर रहे हैं, इसलिये हमारे लिये यही समुचित है कि अग्नि, विष या किसी शस्त्र के प्रयोग से श्यामा का अन्त कर डालें। तदनुसार वे मेरे अन्तर, छिद्र और विवर की प्रतीक्षा करती हुई अवसर देख रही हैं । न जाने मुझे किस कुमौत से मारें ! इस कारण भयाक्रान्त हुई मैं कोपभवन में आकर आर्त्तध्यान कर रही हूँ ।
तदनन्तर महाराजा सिंहसेन ने श्यामादेवी से कहा-हे देवानुप्रिये ! तू इस प्रकार अपहृत मन वाली होकर आर्तध्यान मत कर । निश्चय ही मैं ऐसा उपाय करूंगा कि तुम्हारे शरीर को कहीं से भी किसी प्रकार की आबाधा तथा प्रबाधा न होने पाएगी । इस प्रकार श्यामा देवी को इष्ट, कान्त, प्रिय, मनोज्ञ, मनोहर वचनों से आश्वासन देता है और वहाँ से निकल जाता है । निकलकर कौटुम्बिक-अनुचर पुरुषों को बुलाता है और कहता है-तुम लोग जाओ और जाकर सुप्रतिष्ठित नगर से बाहर पश्चिम दिशा के विभाग में एक बड़ी कूटाकारशाला बनाओ जो सैकड़ों स्तम्भों से युक्त हो, प्रासादीय, अभिरूप, प्रतिरूप तथा दर्शनीय हो वे कौटुम्बिक पुरुष दोनों हाथ जोड़ कर सिर पर दसों नख वाली अञ्जलि रख कर इस राजाज्ञा को शिरोधार्य करते हुए चले जाते हैं । जाकर सुप्रतिष्ठित नगर के बाहर पश्चिम दिक् विभाग में एक महती व अनेक स्तम्भों वाली प्रासादिय, दर्शनीय, अभिरूप और प्रतिरूप कूटाकारशाला तैयार करवा कर महाराज सिंहसेन की आज्ञा प्रत्यर्पण करते हैं
तदनन्तर राजा सिंहसेन किसी समय एक कम पांच सौ देवियों की एक कम पांच सौ माताओं को आमन्त्रित करता है । सिंहसेन राजा का आमंत्रण पाकर वे एक कम पांच सौ देवियों की एक कम पांच सौ मातएं सर्वप्रकार से वस्त्रों एवं आभूषणों से सुसज्जित हो अपनेअपने वैभव के अनुसार सुप्रतिष्ठित नगर में राजा सिंहसेन जहाँ थे, वहाँ आ जाती हैं । सिंहसेन राजा भी उन एक कम पांच सौ देवियों की एक कम पांच सौ माताओं को निवास के लिये कुटाकार-शाला में स्थान दे देता है । तदनन्तर सिंहसेन राजा ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाकर कहा-'देवानुप्रियो ! तुम जाओ और विपुल अशनादिक ले जाओ तथा अनेकविध पुष्पों, वस्त्रों, गन्धों, मालाओं और अलंकारों को कूटाकार शाला में पहुंचाओ । कौटुम्बिक पुरुप भी राजा की आज्ञा के अनुसार सभी सामग्री पहुँचा देते हैं । तदनन्तर सर्व-प्रकार के अलंकारों से विभूषित उन एक कम पांच सौ देवियों की एक कम पांच सौ माताओं ने उस