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प्रश्नव्याकरण- २/१०/४५
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चुभाया जाना, अंग की हीनता होना, लाख के रस, नमकीन तैल, उबलते शीशे या कृष्णवर्ण लोहे से शरीर का सीचा जाना, काष्ठ के खोड़े में डाला जाना, डोरी के निगड़ बन्धन से बाँध जाना, हथकड़ियाँ पहनाई जाना, कुंभी में पकाना, अग्नि से जलाया जाना, शेफत्रोटन लिंगच्छेद, बाँध कर ऊपर से लटकाना, शूली पर चढ़ाया जाना, हाथी के पैर से कुचला जाना, हाथपैर-कान-नाक- होठ और शिर में छेद किया जाना, जीभ का बाहर खींचा जाना, अण्डकोशनेत्र-हृदय-दांत या आंत का मोड़ा जाना, गाड़ी में जोता जाना, बेंत या चाबुक द्वारा प्रहार किया जाना, एड़ी, घुटना या पाषाण का अंग पर आघात होना, यंत्र में पीला जाना, अत्यन्त खुजली होना, करेंच का स्पर्श होना, अग्नि का स्पर्श, बिच्छू के डंक का, वायु का, धूप का या डांस-मच्छरों का स्पर्श होना, कष्टजनक आसन, स्वाध्यायभूमि में तथा दुगन्धमय, कर्कश, भारी, शीत, उष्ण एवं रूक्ष आदि अनेक प्रकार के स्पर्शो में और इसी प्रकार के अन्य अमनोज्ञ स्पर्शो में साधु को रुष्ट नहीं होना चाहिए, उनकी हीलना, निन्दा, गर्हा और खिंसना नहीं करनी चाहिए, अशुभ स्पर्शवाले द्रव्य का छेदन-भेदन, स्व-पर का हनन और स्व-पर में घृणावृत्ति भी उत्पन्न नहीं करनी चाहिए । इस प्रकार स्पर्शनेन्द्रियसंवर की भावना से भावित अन्तःकरणवाला, मनोज्ञ और अमनोज्ञ अनुकूल और प्रतिकूल स्पर्शो की प्राप्ति होने पर राग-द्वेषवृत्ति का संवरण करनेवाला साधु मन, वचन और काय से गुप्त होता है । इस भाँति साधु संवृतेन्द्रिय होकर धर्म का आचरण करे ।
इस प्रकार से यह पाँचवां संवरद्वार-सम्यक् प्रकार से मन, वचन और काय से परिरक्षित पाँच भावना रूप कारणों से संवृत किया जाय तो सुरक्षित होता है । धैर्यवान् और विवेकवान् साधु को यह योग जीवनपर्यन्त निरन्तर पालनीय है । यह आस्रव को रोकनेवाला, निर्मल, मिथ्यात्व आदि छिद्रों से रहित होने के कारण अपरिस्रावी, संक्लेशहीन, शुद्ध और समस्त तीर्थकरों द्वारा अनुज्ञात है । इस प्रकार यह पाँचवां संवरद्वार शरीर द्वारा स्पृष्ट, पालित, अतिचाररहित शुद्ध किया हुआ, परिपूर्णता पर पहुँचाया हुआ, वचन द्वारा कीर्त्तित किया हुआ, अनुपालित तथा तीर्थंकरों की आज्ञा के अनुसार आराधित होता है । ज्ञातमुनि भगवान् ने ऐसा प्रतिपादन किया है । युक्तिपूर्वक समझाया है । यह प्रसिद्ध सिद्ध और भवस्थ सिद्धों का उत्तम शासन कहा गया है, समीचीन रूप से उपदिष्ट है । ऐसा मैं कहता हूँ ।
अध्ययन - १० का मुनिदीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
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[४६] ये पाँच संवररूप महाव्रत सैकड़ों हेतुओं से विस्तीर्ण हैं । अरिहंत - शासन में ये संवरद्वार संक्षेप में पाँच हैं । विस्तार से इनके पच्चीस भेद हैं । जो साधु ईर्यासमिति आदि या ज्ञान और दर्शन से सहित है, कषाय और इन्द्रियसंवर से संवृत है, जो प्राप्त संयमयोग का यत्नपूर्वक पालन और अप्राप्त संयमयोग के लिए यत्नशील है, सर्वथा विशुद्ध श्रद्धानवान् है, वह इन संवरों की आराधना करके मुक्त होगा ।
[४७] प्रश्नव्याकरण में एक श्रुतस्कन्ध है, एक सदृश दस अध्ययन हैं । उपयोगपूर्वक आहारपानी ग्रहण करनेवाले साधु के द्वारा, जैसे आचारांग का वाचन किया जाता है, उसी प्रकार एकान्तर आयंबिल युक्त तपस्यापूर्वक दस दिनों में इन का वाचन किया जाता है ।
१० प्रश्नव्याकरण - अंगसूत्र - १० हिन्दी अनुवाद पूर्ण
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