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________________ ११२ आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद को सूंघकर तथा भिन्न-भिन्न ऋतुओं में उत्पन्न होने वाले कालोचित सुगन्ध वाले एवं दूर-दूर तक फैलने वाली सुगन्ध से युक्त द्रव्यों में और इसी प्रकार की मनोहर, नासिका को प्रिय लगने वाली सुगन्ध के विषय में मुनि को आसक्त नहीं होना चाहिए. यावत अनरागादि नहीं करना चाहिए । उनका स्मरण और विचार भी नहीं करना चाहिए । इसके अतिरिक्त घ्राणेन्द्रिय से अमनोज्ञ और असुहावने गंधों को सूंघकर (रोष आदि नहीं करना चाहिए) । वे दुर्गन्ध कौनसे हैं ? मरा हुआ सर्प, घोड़ा, हाथी, गाय तथा भेड़िया, कुत्ता, मनुष्य, बिल्ली, श्रृंगाल, सिंह और चीता आदि के मृतक सड़े-गले कलेवरों की, जिसमें कीड़े बिलबिला रहे हों, दूर-दूर तक बदबू फैलानेवाली गन्ध में तथा इसी प्रकार के और भी अमनोज्ञ और असुहावनी दुर्गन्धों के विषय में साधु को रोष नहीं करना चाहिए यावत् इन्द्रियों को वशीभूत करके धर्म का आचरण करना चाहिए। रसना-इन्द्रिय से मनोज्ञ एवं सुहावने रसों का आस्वादन करके (उनमें आसक्त नहीं होना चाहिए) । वे रस कैसे हैं ? घी-तैल आदि में डुबा कर पकाए हुए खाजा आदि पकवान, विविध प्रकार के पानक, तेल अथवा घी से बने हुए मालपूवा आदि वस्तुओं में, जो अनेक प्रकार के नमकीन आदि रसों से युक्त हों, मधु, मांस, बहुत प्रकार की मजिका, बहुत व्यय करके बनाया गया, खट्टी दाल, सैन्धाम्ल, दूध, दही, सरक, मद्य, उत्तम प्रकार की वारुणी, सीधु तथा पिशायन नामक मदिराएँ, अठारह प्रकार के शाकवाले ऐसे अनेक प्रकार के मनोज्ञ वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श से युक्त अनेक द्रव्यों से निर्मित भोजन में तथा इसी प्रकार के अन्य मनोज्ञ एवं लुभावने रसों में साधु को आसक्त नहीं होना चाहिए, यावत् उनका स्मरण तथा विचार भी नहीं करना चाहिए । इसके अतिरिक्त जिला-इन्द्रिय से अमनोज्ञ और असुहावने रसों का, आस्वाद करके (रोष आदि नहीं करना चाहिए) । वे अमनोज्ञ रस कौन-से हैं ? अरस, विरस, ठण्डे, रूखे, निर्वाह के अयोग्य भोजन-पानी को तथा रात-वासी, व्यापन, सड़े हुए, अमनोज्ञ, तिक्त, कटु, कसैले, खट्टे, शेवालरहित पुराने पानी के समान एवं नीरस पदार्थों में तथा इसी प्रकार के अन्य अमनोज्ञ तथा अशुभ रसों में साधु को रोष धारण नहीं करना चाहिए यावत् संयतेन्द्रिय होकर धर्म का आचरण करना चाहिए । स्पर्शनेन्द्रिय से मनोज्ञ और सुहावने स्पर्शों को छूकर (रागभाव नहीं धारण करना चाहिए) । वे मनोज्ञ स्पर्श कौन-से हैं ? जलमण्डप, हार, श्वेत चन्दन, शीतल निर्मल जल, विविध पुष्पों की शय्या, खसखस, मोती, पद्मनाल, चन्द्रमा की चाँदनी तथा मोर-पिच्छी, तालवृन्त, वीजना से की गई सुखद शीतल पवन में, ग्रीष्मकाल में सुखद स्पर्शवाले अनेक प्रकार के शयनों और आसनों में, शिशिरकाल में आवरण गुणवाले अंगारों से शरीर को तपाने, धूप स्निग्ध पदार्थ, कोमल और शीतल, गर्म और हल्के, शरीर को सुख और मन को आनन्द देने वाले हों, ऐसे सब स्पर्शों में तथा इसी प्रकार के अन्य मनोज्ञ और सुहावने स्पर्शों में श्रमण को आसक्त नहीं होना चाहिए, अनुरक्त नहीं होना चाहिए, गृद्ध नहीं होना चाहिए, मुग्ध नहीं होना चाहिए और स्व-परहित का विधात नहीं करना चाहिए, लुब्ध नहीं होना चाहिए, तल्लीनचित्त नहीं होना चाहिए, उनमें सन्तोषानुभूति नहीं करनी चाहिए, हँसना नहीं चाहिए, यहाँ तक कि उनका स्मरण और विचार भी नहीं करना चाहिए । इसके अतिरिक्त स्पर्शनेन्द्रिय से अमनोज्ञ एवं पापक-असुहावने स्पर्शों को छूकर (रुष्टद्विष्ट नहीं होना चाहिए ।) वे स्पर्श कौन-से हैं ? वध, बन्धन, ताड़न आदि का प्रहार, अंकन, अधिक भार का लादा जाना, अंग-भंग होना या किया जाना, शरीर में सुई या नख का
SR No.009784
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size17 MB
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