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प्रश्नव्याकरण-२/१०/४५
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द्वितीय भावना चक्षुरिन्द्रिय का संवर है । चक्षुरिन्द्रिय से मनोज्ञ एवं भद्र सचित्त द्रव्य, अचित्त द्रव्य और मिश्र द्रव्य के रूपों को देख कर वे रूप चाहे काष्ठ पर हों, वस्त्र पर हों, चित्र-लिखित हों, मिट्टी आदि के लेप से बनाए गए हों, पाषण पर अंकित हों, हाथीदांत आदि पर हों, पाँच वर्ण के और नाना प्रकार के आकार वाले हों, गूंथ कर माला आदि की तरह बनाए गए हों, वेष्टन से, चपड़ी आदि भर कर अथवा संघात से-फूल आदि की तरह एकदूसरे को मिलाकर बनाएं गए हों, अनेक प्रकार की मालाओं के रूप हों और वे नयनों तथा मन को अत्यन्त आनन्द प्रदान करने वाले हों (तथापि उन्हें देख कर राग नहीं उत्पन्न होने देना चाहिए)।
इसी प्रकार वनखण्ड, पर्वत, ग्राम, आकर, नगर तथा विकसित नील कमलों एवं कमलों से सुशोभित और मनोहर तथा जिनमें अनेक हंस, सारस आदि पक्षियों के युगल विचरण कर रहे हों, ऐसे छोटे जलाशय, गोलाकार वावड़ी, चौकोर वावड़ी, दीर्घिका, नहर, सरोवरों की कतार, सागर, बिलपंक्ति, लोहे आदि की खानों में खोदे हुए गडहों की पंक्ति, खाई, नदी, सर, तडाग, पानी की क्यारी अथवा उत्तम मण्डप, विविध प्रकार के भवन, तोरण, चैत्य, देवालय, सभा, प्याऊ, आवसथ, सुनिर्मित शयन, आसन, शिबिका, रथ, गाड़ी, यान, युग्य, स्यन्दन और नर-नारियों का समूह, ये सब वस्तुएँ यदि सौम्य हों, आकर्षक रूपवाली दर्शनीय हों, आभूषणों से अलंकृत और सुन्दर वस्त्रों से विभूषित हों, पूर्व में की हुई तपस्या के प्रभाव से सौभाग्य को प्राप्त हों तो (इन्हें देखकर) तथा नट, नर्तक, जल्ल, मल्ल, मौष्टिक, विदूषक, कथावाचक, प्लवक, रास करनेवाले व वार्ता कहनेवाले, चित्रपट लेकर भिक्षा मांगनेवाले, वांस पर खेल करनेवाले, तूणा बजानेवाले, तूम्बे की वीणा बजानेवाले एवं तालाचरों के विविध प्रयोग देख कर तथा बहुत से करतबों को देखकर । इस प्रकार के अन्य मनोज्ञ तथा सुहावने रूपों में साधु को आसक्त नहीं होना चाहिए, अनुरक्त नहीं होना चाहिए, यावत् उनका स्मरण और विचार भी नहीं करना चाहिए ।
इसके सिवाय चक्षुरिन्द्रिय से अमनोज्ञ और पापकारी रूपों को देखकर (रोष नहीं करना चाहिए) । वे (अमनोज्ञ रूप) कौन-से हैं ? वात, पित्त, कफ और सन्निपात से होनेवाले गंडरोगवाले को, अठारह प्रकार के कुष्ठ रोग वाले को, कुणि को, जलोदर के रोगी को, खुजली वाले को, श्लीपद रोग के रोगी को, लंगड़े को, वामन को, जन्मान्ध को, काणे को, विनिहत चक्षु को जिसकी एक या दोनों आँखें नष्ट हो गई हों, पिशाचग्रस्त को अथवा पीठ से सरक कर चलनेवाले, विशिष्ट चित्तपीड़ा रूप व्याधि या रोग से पीड़ित को तथा विकृत मृतक-कलेवरों को या बिलबिलाते कीड़ों से युक्त सड़ी-गली द्रव्यराशि को देखकर अथवा इनके सिवाय इसी प्रकार के अन्य अमनोज्ञ और पापकारी रूपों को देखकर श्रमण को उन रूपों के प्रति रुष्ट नहीं होना चाहिए, यावत् अवहेलना आदि नहीं करनी चाहिए और मन में जुगुप्सा-धृणा भी नहीं उत्पन्न होने देना चाहिए । इस प्रकार चक्षुरिन्द्रियसंवर रूप भावना से भावित अन्तःकरण वाला होकर मुनि यावत् धर्म का आचरण करे ।।
घ्राणेन्द्रिय से मनोज्ञ और सुहावना गंध सूंघकर (रागादि नहीं करना चाहिए) । वे सुगन्ध क्या-कैसे हैं ? जल और स्थल में उत्पन्न होनेवाले सरस पुष्प, फल, पान, भोजन, उत्पलकुष्ठ, तगर, तमालपत्र, सुगन्धित त्वचा, दमनक, मरुआ, इलायची का रस, पका हुआ मांसी नामक सुगन्धवाला द्रव्य-जटामासी, सरस गोशीर्ष चन्दन, कपूर, लवंग, अगर, कुंकुम, कक्कोल, उशीर, श्वेत, चन्दन, श्रीखण्ड आदि द्रव्यों के संयोग से बनी श्रेष्ठ धूप की सुगन्ध