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________________ ज्ञाताधर्मकथा-१/-/२/४५ ९७ करता था - उनकी गवेषणा करता था, विषम-रोग की तीव्रता, इष्ट जनों के वियोग, व्यसन, अभ्युदय, उत्सवों, मदन त्रयोदशी आदि तिथियों, क्षण, यज्ञ, कौमुदी आदि पर्वणी में, बहुत से लोग मद्यपान से मत्त हो गए हों, प्रमत्त हुए हों, अमुक कार्य में व्यस्त हों, विविध कार्यों में आकुल-व्याकुल हों, सुख में हो, दुःख में हों, परदेश गये हों, परदेश जाने की तैयारी में हों, ऐसे अवसरों पर वह लोगों के छिद्र का, विरह का और अन्तर का विचार करता और गवेषणा करता रहता था । वह विजय चोर राजगृह नगर के बाहर भी आरामों में अर्थात् दम्पती के क्रीड़ा करने के लिए माधवीलतागृह आदि जहाँ बने हों ऐसे बगीचों में, चौकोर बावड़ियों में, कमल वाली पुष्करिणियों में, दीर्धिकाओं में, गुंजालिकाओं में, सरोवरों में, सरोवरों की पंक्तियों में, सर-सर पंक्तियों में, जीर्ण उद्यानों में, भग्न कूपों मं, मालुकाकच्छों की झाड़ियों में, श्मशानों में, पर्वत की गुफाओं में, लयनों तथा उपस्थानों में बहुत लोगों के छिद्र आदि देखता रहता था । [४६] धन्य सार्थवाह की भार्या भद्रा एक बार कदाचित् मध्यरात्रि के समय कुटुम्ब सम्बन्धी चिन्ता कर रही थी कि उसे इस प्रकार का विचार उत्पन्न हुआ बहुत वर्षों से मैं धन्य सार्थवाह के साथ शब्द, स्पर्श, रस, गन्ध और रूप यह पांचों प्रकार के मनुष्य सम्बन्धी कामभोग भोगती हई विचर रही हैं, परन्त मैंने एक भी पत्र या पत्री को जन्म नहीं दिया । वे माताएँ धन्य हैं, यावत् उन माताओं को मनुष्य-जन्म और जीवने का प्रशस्त-भला फल प्राप्त हुआ है, जो माताएँ, मैं मानती हूँ कि, अपनी कोख से उत्पन्न हुए, स्तनों का दूध पीने में लुब्ध, मीठे बोल बोलने वाले, तुतला-तुतला कर बोलने वाले और स्तन के मूल से काँख के प्रदेश की ओर सरकने वाले मुग्ध बालकों को स्तनपान कराती हैं और फिर कमल के समान कोमल हाथों से उन्हें पकड़ कर अपनी गोद में बिठलाती हैं और बार-बार अतिशय प्रिय वचन वाले मधुर उल्लाप देती हैं । मैं अधन्य हूँ, पुण्यहीन हूँ, कुलक्षणा हूँ और पापिनी हूँ कि इनमें से एक भी न पा सकी । ____ अतएव मेरे लिए यही श्रेयस्कर है कि कल रात्रि के प्रभात रूप में प्रकट होने पर और सूर्योदय होने पर धन्य सार्थवाह से पूछ कर, आज्ञा प्राप्त करके मैं बहुत-सा अशन, पान, खादिम और स्वादिम आहार तैयार कराके बहुत-से पुष्प वस्त्र गंधमाला और अलंकार ग्रहण करके, बहुसंख्यक मित्र, ज्ञातिजनों, निजजनों, स्वजनों, सम्बन्धियों, और परिजनों की महिलाओं के साथ-उनसे परिवृत होकर, राजगृह नगर के बाहर जो नाग, भूत, यक्ष, इन्द्र, स्कन्द, रुद्र, शिव और वैश्रमण आदि देवों के आयतन हैं और उनमें जो नाग की प्रतिमा यावत् वैश्रमण की प्रतिमाएँ है, उनकी बहुमूल्य पुष्पादि से पूजा करके घुटने और पैर झुका कर इस प्रकार कहूँ-'हे देवानुप्रिय ! यदि मैं एक भी पुत्र या पुत्री को जन्म दूंगी तो मैं तुम्हारी पूजा करूँगी, पर्व के दिन दान दूंगी, भाग-द्रव्य के लाभ का हिस्सा दूंगी और तुम्हारी अक्षय-निधि की वृद्धि करूँगी ।' इस प्रकार अपनी इष्ट वस्तु की याचना करूँ । भद्रा ने इस प्रकार विचार किया । दूसरे दिन यावत् सूर्योदय होने पर जहाँ धन्य सार्थवाह थे, वहीं आई । आकर इस प्रकार बोली- देवानुप्रिय ! मैंने आपके सात बहुत वर्षों तक कामभोग भोगे हैं, किन्तु एक भी पुत्र या पुत्री को जन्म नहीं दिया । अन्य स्त्रियाँ बारबार अति मधुर वचन वाले उल्लाप देती हैं-अपने बच्चों की लोरियाँ गाती हैं, किन्तु मैं अधन्य,
SR No.009783
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size11 MB
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