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आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
पुण्य-हीन और लक्षणहीन हूँ, तो हे देवानुप्रिय ! मैं चाहती हूँ कि आपकी आज्ञा पाकर विपुल अशन आदि तैयार कराकर नाग आदि की पूजा करूँ यावत् उनकी अक्षय.निधि की वृद्धि करूँ, ऐसी मनौती मनाऊँ । तत्पश्चात् धन्य सार्थवाह ने भद्रा भार्या से इस प्रकार कहा-'हे देवानुप्रिये ! निश्चय ही मेरा भी यही मनोरथ है कि किसी प्रकार तुम पुत्र या पुत्री का प्रसव करो-जन्म दो ।' इस प्रकार कह कर भद्रा सार्थवाही को उस अर्थ की अर्थात् नाग, भूत, यक्ष आदि की पूजा करने की अनुमति दे दी ।
तत्पश्चात् वह भद्रा सार्थवाही धन्य सार्थवाह से अनुमति प्राप्त करके हृष्ट-तुष्ट यावत् प्रफुल्लित हृदय होकर विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम तैयार कराती है । तैयार कराकर बहुत-से गंध, वस्त्र, माला और अलंकारों को ग्रहण करती हैं और फिर अपने घर से बाहर निकलती है । राजगृह नगर के बीचों-बीच होकर निकलती है । जहाँ पुष्करिणी थी, वहीं पहुंचती है । पुष्करिणी के किनारे बहुत से पुष्प, गंध, वस्त्र, मालाएँ और अलंकार रख दिए। पुष्करिणी में प्रवेश किया, जलमजन किया, जलक्रीया की, स्नान किया और बलिकर्म किया। तत्पश्चात् ओढ़ने-पहनने के दोनों गीले वस्त्र धारण किये हुए भद्रा सार्थवाही ने वहाँ जो उत्पल-कमल, पद्म, कुमुद, नलिन, सुभग, सौगन्धिक, पुंडरीक, महापुंडरीक, शतपत्र और सहस्त्र-पत्र-कमल थे उन सबको ग्रहण किया । बाहर निकली । निकल कर पहले रखे हुए बहुत-से पुष्प, गंघ मारा आदि लिए और उन्हें लेकर जहाँ नागागृह था यावत् वैश्रमणगृह था, वहाँ पहुँची । उनमें स्थित नाग की प्रतिमा यावत् वैश्रमण की प्रतिमा पर दृष्टि पड़ते ही उन्हें नमस्कार किया । जल की धार छोड़कर अभिषेक किया । रुएँदार और कोमल कषाय-रंग वाले सुगंधित वस्त्र से प्रतिमा के अंग पौंछे । बहुमूल्य वस्त्रों का आरोहण किया, पुष्पमाला पहनाई, गंध का लेपन किया, चूर्ण चढ़ाया और शोभाजनक वर्ण का स्थापन किया, यावत् धूप जलाई। घुटने और पैक टेक कर, दोनों हाथ जोड़कर इस प्रकार कहा- 'अगर मैं पुत्र या पुत्री की जन्म दूंगी तो मैं तुम्हारी याग-पूजा करूंगी, यावत् अक्षयनिधि की वृद्धि करूंगी । इस प्रकार भद्रा सार्थवाही मनौती करके जहाँ पुष्करिणी थी, वहाँ आई और विपुल अशन, पान, खादिम एवं स्वादिम आहार का आस्वादन करती हुई यावत् विचरने लगी । भोजन करने के पश्चात् शुचि होकर अपने घर आ गई।
[४७] तत्पश्चात् भद्रा सार्थवाही चतुर्दशी, अष्टमी, अमावस्या और पूर्णिमा के दिन विपुल अशन, पान, खादिम और भोजन तैयार करती । बहुत से नाग यावत् वैश्रमण देवों की मनौती करती और उन्हें नमस्कार किया करती थी । वह भद्रा ६सार्थवाही कुछ समय व्यतीत हो जाने पर एकदा गर्भवती हो गई । भद्रा सार्थवाही को दो मास बीत गये । तीसरा मास चल रहा था, तब इस प्रकार को दोहद उत्पन्न हुआ-'वे माताएँ धन्य है, यावत् तथा वे माताएँ शुभ लक्षण वाली हैं जो विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम-यह चार प्रकार का आहार तथा बहुत-सारे पुष्प, वस्त्र, गंध और मारा तथा अलंकार ग्रहण करके मित्र, ज्ञाति, निजक, स्वजन, सम्बन्धी और परिजनो की स्त्रियों के साथ परिवृत होकर राजगृह नगर के बीचोंबीच होकर निकलती हैं । जहाँ पुष्करिणी हैं वहाँ आती हैं, आकर पुष्करिणी में अवगाहन करती हैं, स्नान करती हैं, बलिकर्म करती हैं और सब अलंकारों से विभूषित होती हैं । फिर विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम आहार का आस्वादन करती हुई, विशेष आस्वादन