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________________ आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद अवश्य त्याग करने योग्य है । है माता-पिता ! किसे ज्ञात है कि पहले कौन जायगा और पीछे कौन जायगा ? अतएव मैं यावत् दीक्षा अंगीकार करना चाहता हूं ।' [३३] मेघकुमार के माता-पिता जब मेघकुमार को विषयों अनुकूल आख्यापना से, प्रज्ञापना से, संज्ञापना से, विज्ञापना से समझाने बुझाने, संबोधित करने और मनाने में समर्थ नहीं हुए, तब विषयों के प्रतिकूल तथा संयम के प्रति भय और उद्वेग उत्पन्न करनेवाली प्रज्ञापना से कहने लगे- हे पुत्र ! यह निर्ग्रन्थप्रवचन सत्य है, अनुत्तर है, सर्वज्ञकथित है, प्रतिपूर्ण है, नैयायिक है, संशुद्ध है, शल्यकर्त्तन है, सिद्धि का मार्ग है, मुक्तिमार्ग है, निर्याण का मार्ग है, निर्वाण का मार्ग है और समस्त दुःखों का पूर्णरुपेण नष्ट करने का मार्ग है । जैसे सर्प अपने भक्ष्य को ग्रहण करने में निश्चल दृष्टि रखता है, उसी प्रकार इस प्रवचन में दृष्टि निश्चल रखनी पड़ती है । यह छुरे के समान एक धार वाला है, इस प्रवचन के अनुसार चलना लोहे के जौ चबाना है । यह रेत के कवल के समान स्वादहीन है । इसका पालन करना गंगा नामक महानदी के सामने पूर में तिरने के समान कठिन है, भुजाओं से महासमुद्र को पार करना है, तीखी तलवार पर आक्रमण करने के समान है, महाशिला जैसी भारी वस्तुओं को गले में बांधने के समान है, तलवार की धार पर चलने के समान है । ७८ हे पुत्र ! निर्ग्रन्थ श्रमणों को आधाकर्मी औद्देशिक, क्रीतकृत स्थापित, रचित, दुर्भिक्षभक्त, कान्तारभक्त, वर्दलिका भक्त, ग्लानभक्त, आदि दूषित आहार ग्रहण करना नहीं कल्पता है | इसी प्रकार मूल का भोजन, कंद का भोजन, फल का भोजन, शालि आदि बीजों का भोजन अथवा हरित का भोजन करनी भी नहीं कल्पता है । इसके अतिरिक्त हे पुत्र ! तू सुख भोगने योग्य है, दुःख सहने योग्य नहीं है । तू सर्दी या गर्मी सहने में समर्थ नहीं है । भूख प्यास नहीं सह सकता, वात, पित्त, कफ और सन्निपात से होनेवाले विविध रोगों को तथा आतंकों को, प्रतिकूल वचनों को, परीषहों कौ और उपसर्गों को सम्यक् प्रकार सहन नहीं कर सकता। अतएव हे लाल ! तू मनुष्य सम्बन्धी कामभोगों को भोग । बाद में भुक्तभोग होकर श्रमण भगवान् महावीर के निकट प्रव्रज्या अंगीकार करना । तत्पश्चात् माता-पिता के इस प्रकार कहने पर मेघकुमार ने माता-पिता से इस प्रकार कहा- हे माता-पिता ! आप मुझे यह जो कहते हैं सो ठीक है कि हे पुत्र ! यह निर्ग्रन्थप्रवचन सत्य है, सर्वोत्तम है. आदि पूर्वोक्त कथन यहाँ दोहरा लेना चाहिए; यावत् बाद में भुक्तभोग होकर प्रव्रज्या अंगीकार कर लेना । परन्तु हे माता-पिता ! इस प्रकार यह निर्ग्रन्थप्रवचन क्लब -हीन संहनन वाले, कायर - चित्त की स्थिरता से रहित, कुत्सित, इस लोक सम्बन्धी विषयसुख की अभिलाषा करने वाले, परलोक के सुख की इच्छा न करनेवाले सामान्य जन के लिए ही दुष्कर है । धीर एवं दृढ संकल्प वाले पुरुष को इसका पालन करना कठिन नहीं है । इसका पालन करने में कठिनाई क्या है ? अतएव हे माता-पिता ! आपकी अनुमति पाकर मैं श्रमण भगवान् महावीर के निकट प्रव्रज्या ग्रहण करना चाहता हूँ । जब माता-पिता मेघकुमार को विषयों के अनुकूल और विषयों में प्रतिकूल बहुतसी आख्यापना, प्रज्ञापना और विज्ञापना से समझाने बुझाने, सम्बोधन करने और विज्ञप्ति करने में समर्थ न हुए, तब इच्छा के बिना भी मेघकुमार से बोले - 'हे पुत्र ! हम एक दिन भी तुम्हारी राज्यलक्ष्मी देखना चाहते हैं ।' तब मेघकुमार माता-पिता का अनुसरण करता हुए मौन रह
SR No.009783
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size11 MB
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