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________________ ज्ञाताधर्मकथा-१/-/१/३२ | ৩৩ होना-सो ठीक है, परन्तु हे माता-पिता ! यह मनुष्यभव ध्रुव नहीं है, नियत नहीं है, यह अशाश्वत है तथा सैकड़ों व्यसनों एवं उपद्रवों से व्याप्त है, बिजली की चमक के समान चंचल है, अनित्य है, जल के बुलबुले के समान है, दूब की नोंक पर लटकनेवाले जलबिन्दु के समान हे, सन्ध्यासमय के बादलों की लालिमा के सदृश है, स्वप्नदर्शन के समान है-अभी है और अभी नहीं हैं, कुष्ठ आदि से सड़ने, तलवार आदि से कने और क्षीण होने के स्वभाववाला है तथा आगे या पीछे अवश्य ही त्याग करने योग्य है । इसके अतिरिक्त कौन जानता है कि कौन पहले जाएगा और कौन पीछे जाएगा? हे माता-पिता ! मैं आपकी आज्ञा प्राप्त करके श्रमण भगवान् महावीर के निकट यावत् प्रव्रज्या अंगीकार करना चाहता हूँ ।' तत्पश्चात् माता-पिता ने मेघकुमाक से इस प्रकार कहा-'हे पुत्र ! यह तुम्हारी भार्याएँ समान शरीर वाली, समान त्वचा वाली, समान वय वाली, समान लावण्य, रूप, यौवन और गुणों से सम्पन्न तथा समान राजकुलों से लाई हुई है । अतएव हे पुत्र ! इनके साथ विपुल मनुष्य संबंधी कामभोगों को भोगो । तदनन्तकर भुक्तभोग होकर श्रमण भगवान् महावीर के निकट यावत् दीक्षा ले लेना । तत्पश्चात् मेघकुमान ने माता-पिता से इस प्रकार कहा - 'हे माता-पिता ! आप मुझे यह जो कहते हैं कि-'हे पुत्र ! तेरी ये भार्याएँ समान शरीरवाली हैं इत्यादि, यावत् इनके साथ भोग भोगकर श्रमण भगवान् महावीर के समीप दीक्षा ले लेना; सो ठीक है, किन्तु हे, माता-पिता ! मनुष्यों के ये कामभोग अशाश्वत हैं, इनमें से वमन झरता हैं, पित्त, कफ, शुक्र तथा शोणित झरता है । ये गंदे उच्छ्वास-निःश्वास वाले हैं, खराब मूत्र, मल और पीव से परिपूर्ण हैं, मल, मूत्र, कफ, नासिका-मंल, वमन, पित्त, शुक्र और शोणित से उत्पन्न होनेवाले हैं । यह ध्रुव नहीं, नियत नहीं, शाश्वत नहीं हैं, सड़ने, पड़ने और विध्वंस होने के स्वभाव वाले हैं और पहले या पीछे अवश्य ही त्याग करने योग्य हैं । हे माता-पिता! कौन जानता हैं कि पहले कौन जायगा और पीछे कौन जायगा ? अतएव हे माता-पिता ! मैं यावत् अभी दीक्षा ग्रहण करना चाहता हूं।' तत्पश्चात् माता-पिता ने मेघकुमार से इस प्रकार कहा-हे पुत्र ! तुम्हारे पितामह, पिता के पितामह और पिता के प्रपितामह से आया हुआ यह बहुत-सा हिरण्य, सुवर्ण, कांसा, दूष्यवस्त्र, मणि, मोती, शंख, सिला, मूंगा, लाल-रत्न आदि सारभूत द्रव्य विद्यमान है । यह इनता है कि सात पीढ़ियों तक भी समाप्त न हो । इसका तुम खूब दान करो, स्वयं भोग करो और बांटो । हे पुत्र ! यह जितना मनुष्यसम्बन्धी ऋद्धि-सत्कार का समुदान है, उतना सब तुम भोगो । उसके बाद अनुभूत-कल्याण होकर श्रमण भगवान् महावीर के समक्ष दीक्षा ग्रहण कर लेना । तत्पश्चात् मेघकुमार ने माता-पिता से कहा- आप जो कहते हैं सो ठीक है कि- 'हे पुत्र ! यह दादा, पड़दादा और पिता के पड़दादा से आया हुआ यावत् उत्तम द्रव्य है, इसे भोगो और फिर अनुभूत-कल्याण होकर दीक्षा ले लेना, परन्तु है माता-पिता ! यह हिरण्य सुवर्ण यावत् स्वापतेय (द्रव्य) सब अग्निसाध्य है-इसे अग्नि भस्म कर सकती है, चोर चुरा सकता है, राजा अपहरण कर सकता है, हिस्सेदार बंटवारा कर सकते हैं और मृत्यु आने पर वह अपना नहीं रहता है । इसी प्रकार यह द्रव्य अग्नि के लिए समान है, अर्थात् जैसै द्रव्य उसके स्वामी का है, उसी प्रकार अग्नि का भी है और इसी तरह चोर, राजा, भागीदार और मृत्यु के लिए भी सामान्य है । यह सड़ने, पड़ने और विध्वस्त होने के स्वभाववाला है । पश्चात् या पहले
SR No.009783
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size11 MB
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