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आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
करोड़ सुवर्ण दिया, यावत् एक-एक प्रेक्षणकारिणी या पेषणकारिणी दी । इसके अतिरिक्त अन्य विपुल धन कनक आदि दिया, जो यावत् दान देने, भोगोपभोग करने और बँटवाला करने के लिए सात पीढ़ियों तक पर्याप्त था । तत्पश्चात् मेघकुमार श्रेष्ठ प्रसाद के ऊपर रहा हुआ, मानो मृदंगों के मुख फूट रहे हो, इस प्रकार उत्तम स्त्रियों द्वारा किये हुए, बत्तीसबद्ध नाटकों द्वारा गायन किया जाता हुआ तथा क्रीड़ा करता हुआ, मनोज्ञ शब्द, स्पर्श, रूप और गंध की विपुलता वाले मनुष्य सम्बन्धी कामभोगों को भोगता हुआ रहने लगा ।
[२९] उस काल और उस समय में श्रमण भगवान् महावीर अनुक्रम से चलते हुए, एक गांव से दूसरे गांव जाते हुए, सुखे-सुखे विहार करते हुए, जहां राजगृह नगर था और जहां गुणशील नामक चैत्य था, यावत् ठहरे ।
[३०] तत्पश्चात् राजगृह नगर में श्रृंगाटक-सिंघाड़े के आकार के मार्ग, तिराहे,चौराहे, चत्वर, चतुर्मुख पथ, महापथ आदि में बहुत से लोगों का शोर होने लगा । यावत् बहुतेरे उग्रकुल के, भोगकुल के तथा अन्य सभी लोग यावत् राहगृह नगर के मध्य भाग में होकर एक ही दिशा में, एक ही ओर मुख करके निकलने लगे उस समय मेघकुमार अपने प्रासाद पर था । मानो मृदंगों का मुख फूट रहा हो, उस प्रकार गायन किया जा रहा था । यावत् मनुष्य संबंधी कामभोग भोग रहा था और राजमार्ग का अवलोकन करता-करता विचर रहा था। तब वह मेघकुमार उन बहुतेरे उग्रकुलीन भोगकुलीन यावत् सब लोगों को एक ही दिशा में मुख किये जाते देखता है । देखकर कंचुकी पुरुष को बुलाता है और बुलाकर इस प्रकार कहता है-हे देवानुप्रिय ! क्या आज राजगृह नगर में इन्द्र-महोत्सव है ? स्कंद का महोत्सव है ? या रुद्र, शिव, वैश्रमण, नाग, यक्ष, भूत, नदी, तड़ाग, वृक्ष, चैत्य, पर्वत, उद्यान या गिरि की यात्रा हैं ? जिससे बहुत से उग्र-कुल तथा भोग-कुल आदि के सब लोग एक ही दिशा में और एक ही ओर मुख करके निकल रहे हैं ?'
तब उस कंचुकी पुरुष ने श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के आगमन का वृत्तान्त जानकर मेघकुमार को इस प्रकार कहा-देवानुप्रिय ! आज राजगृह नगर में इन्द्रमहोत्सव या यावत् गिरियात्रा आदि नहीं है कि जिसके निमित्त यह सब जा रहे हैं । परन्तु देवानुप्रिय ! श्रमण भगवान् महावीर धर्म-तीर्थ का आदि करनेवाले, तीर्थ की स्थापना करनेवाले यहाँ आये हैं, पधार चुके हैं, समवसृत हुए हैं और इसी राजगृह नगर में, गुणशील चैत्य में यथायोग्य अवग्रह की याचना करके विचर रहे हैं । मेधकुमार कंचुकी पुरुष से यह बात सुनकर एवं हृदय में धारण करके, हृष्ट-तुष्ट होता हुआ कौटुम्बिक पुरुषों को बुलवाता है और बुलवाकर इस प्रकार कहता है-हे देवानुप्रियो ! शीघ्र ही चार घंटाओं वाले अश्वस्थ को जोत कर उपस्थित करो । वे कौटुम्बिक पुरुष 'बहुत अच्छा' कह कर रथ जोत लाते हैं ।
तत्पश्चात् मेघकुमार ने स्नान किया । सर्व अलंकारों से विभूषित हुआ । फिर चार घंटा वाले अश्वरथ पर आरूढ हुआ । कोरंट वृक्ष के फूलों की माली वाले छत्र को धारण किया । सुभटों के विपुल समूह वाले परिवार से घिरा हुआ, राजगृह नगर के वीचों-बीच होकर निकला । जहाँ गुणशील नामक चैत्य था, वहाँ आया । श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के छत्र पर छत्र और पताकाओं पर पताका आदि अतिशयों को देखा तथा विद्याधरों, चारण मुनियों और मुंभक देवों को नीचे उतरते एवं ऊपर चढ़ते देखा । यह सब देखकर चार घंटा