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आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
धन्य हैं, इत्यादि सब पहले की भांति ही कह लेना, यावत् जो अपने दोहद को पूर्ण करती हैं । तब हे पुत्र ! मैं धारिणी देवी के उस अकाल-दोहद के आयों, उपायों एवं उपपत्ति को नहीं समझ पाया हूँ । उससे मेरे मन का संकल्प नष्ट हो गया है और मैं चिन्तायुक्त हो रहा हूँ । इसी से मुझे तुम्हारा आना भी नहीं जान पड़ा । अतएव पुत्र ! मैं इसी कारण नष्ट हुए मनःसंकल्प वाला होकर चिन्ता कर रहा हूँ।
तत्पश्चात् वह अभयकुमार, श्रेणिक राजा से यह अर्थ सुनकर और समझ कर हृष्टतुष्ट और आनन्दित-हृदय हुआ । उसने श्रेणिक राजा से इस भाँति कहा-हे तात ! आप भग्नमनोरथ होकर चिन्ता न करें । मैं वैसा करूंगा, जिससे मेरी छोटी माता धारिणी देवी के इस अकाल-दोहद के मनोरथ की पूर्ति होगी । इस प्रकार कह इष्ट, कांच यावत् श्रेणिक राजा को सान्त्वनादी । श्रेणिक राजा, अभयकुमार के इस प्रकार कहने पर हृष्ट-तुष्ट हुआ । वह अभयकुमार का सत्कार करता है, सन्मान करता है । सत्कार-सन्मान करके विदा करता है ।
[२१] तब (श्रेणिक राजा द्वारा) सत्कारित एवं सन्मानित होकर विदा किया हुआ अभयकुमार श्रेणिक राजा के पास से निकलता है । निकल कर जहाँ अपना भवन है, वहाँ आता है । आकर वह सिंहासन पर बैठ गया । तत्पश्चात् अभयकुमार को इस प्रकार यह आध्यात्मिक विचार, चिन्तन, प्रार्थित या मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ-दिव्य अर्थात् दैवी संबंधी उपाय के बिना केवल मानवीय उपाय से छोटी माता धारिणी देवी के अकाल-दोहद के मनोरथ की पूर्ति होना शक्य नहीं है । सौधर्म कल्प मैं रहनेवाला देव मेरा पूर्व का मित्र है, जो महान् ऋद्धिधारक यावत् महान् सुख भोगनेवाला है । तो मेरे लिए यह श्रेयस्कर है कि मैं पौषधशाला में पौषध ग्रहण करके, ब्रह्मचर्य धारण करके, मणि-सुवर्ण आदिके अलंकारो का त्याग करके, माला वर्णक और विलेपन का त्याग करके, शस्त्र-मूसल आदि अर्थात् समस्त आरम्भ-समाम्भ को छोड़ कर, एकाकी और अद्वितीय होलक, डाभ के संथारे पर स्थित होकर, अष्टभक्ततेला की तपस्या ग्रहण करके, पहले के मित्र देव का मन में चिन्तन करता हुआ स्थित रहूँ । ऐसा करने से वह पूर्व का मित्र देव मेरी छोटी माता धारिणी देवी के अकाल-मेघों संबंधी दोहद को पूर्ण कर देगा ।
- अभयकुमार इस प्रकार विचार करता है । विचार करके जहाँ पौषधशाला है, वहाँ जाता है । जाकर पौषधशारा का प्रमार्जन करता है । उच्चार-प्रस्त्रवण की भूमि का प्रतिलेखन करता है। प्रतिलेखन करके डाभ के संथारे का प्रतिलेखन करता है । डाभ के संथारे का प्रतिलेखन करके उस पर आसीन होता है । आसीन होकर अष्टमभक्त तप ग्रहण करता है । ग्रहण करके पौषधशाला में पौषधयुक्त होकर, ब्रह्मचर्य अंगीराक करके पहले के मित्र देव का मन में पुनः पुनः चिन्तन करता है ।
जब अभयकुमार का अष्टमभक्त तप प्रायः पूर्ण होने आया, तब पूर्वभव के मित्र देव का आसन चलायमान हुआ । तब पूर्वभव का मित्र सौधर्मकल्पवासी देव अपने आसन को चलित हुआ देखता है और देखकर अवधिज्ञान का उपयोग लगाता है । तब पूर्वभव के मित्र देव को इस प्रकार का यह आन्तरिक विचार उत्पन्न होता है-'इस प्रकार मेरा पूर्वभव का मित्र अभयकुमार जम्बूद्वीप नामक द्वीप में, भारतवर्ष में, दक्षिणार्ध भरत में, राजगृह में, पौषधशाला में अष्टमभक्त ग्रहण करके मन में बार-बार मेरा स्मरण कर रहा है । अतएव मुझे अभयकुमार