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ज्ञाताधर्मकथा-१/-/१/२०
यावत् आर्तध्यान से युक्त होकर चिन्ताग्रस्त होने का यही कारण है ।
__ तत्पश्चात् श्रेणिक राजा ने धारिणी देवी से यह बात सुनकर और समझ कर, धारिणी देवी से इस प्रकार कहा-'देवानुप्रिय ! तुम जीर्ण शरीर वाली मत होओ, यावत् चिन्ता मत करो, मैं वैसा करूंगा जिससे तुम्हारे इस अकाल-दोहद की पूर्ति हो जाएगी ।' इस प्रकार कहकर श्रेणिक ने धारिणी देवी को इष्ट, कान्त, प्रिय, मनोज्ञ और मणाम वाणी से आश्वासन दिया।
आश्वासन देकर जहाँ बाहर की उपस्थानशाला थी, वहाँ आया । आकर श्रेष्ठ सिंहासन पर पूर्व दिशा की और मुख करके बैठा । धारिणी देवी के इस अकाल-दोहद की पूर्ति करने के लिए बहुतेरे आयों से, उपायों से, औत्पत्तिकी बुद्धि से, वैनयिक बुद्धि से, कार्मिक बुद्धि से, पारिणामिक बुद्धि से इस प्रकार चारों तरह की बुद्धि से बार-बार विचार करने लगा । परन्तु विचार करने पर भी उस दोहद के लाभ को, उपाय क, स्थिति को और निष्पत्ति को समझ नहीं पाता, अर्थात् दोहदपूर्ति को कोई उपाय नहीं सूझता । अतएव श्रेणिक राजा के मन का संकल्प नष्ट ो गया और वह भी यावत् चिन्ताग्रस्त हो गया ।
तदनन्तर अभयकुमार स्नान करके, बलिकर्म करके, यावत् समस्त अलंकारों से विभूषित होकर श्रेणिक राजा के चरणों में वन्दना करने के लिए जाने का विचार करता है -खाना होता है । तत्पश्चात् अभयकुमार श्रेणिक राजा के समीप आता है । आकर श्रेणिक राजा को देखता है कि इनके मन के संकल्प को आघात पहुँचा है । यह देखकर अभयकुमार के मन में इस प्रकार का यह आध्यात्मिक अर्थात् आत्मा संबंधी, चिन्तित, प्रार्थित और मनोगत संकल्प उत्पन्न होता है- 'अन्य समय श्रेणिक राजा मुझे आता देखते थे तो देखकर आदर करते, जानते, वस्त्रादि से सत्कार करते, आसनादि देकर सन्मान करते तथा आलाप-संलाप करते थे, आधे आसन पर बैठने के लिए निमंत्रण करते और मेरे मस्तक को सूंघते थे । किन्तु आज श्रेणिक राजा मुझे न आदर दे रहे हैं, न आया जान रहे हैं, न सत्कार करते हैं, न इष्ट कान्त प्रिय मनोज्ञ और उदार वचनों से आलाप-संलाप करते हैं, न अर्ध आसन पर बैठने के लिए निमंत्रित करतेहैं और न मस्तक को सूंधते हैं. उनके मन के संकल्प को कुछ आघात पहुँचा है, अतएव चिन्तित हो रहे हैं । इसका कोई कारण होना चाहिए । मुझे श्रेणिक राजा से यह बात पूछना श्रेय है ।' अभयकुमार इस प्रकार विचार करता है और विचार कर जहाँ श्रेणिक राजा थे, वहीं आता है । आकर दोनों हाथ जोड़कर, मस्तक पर आवर्त, अंजलि करके जयविजय से वधाता है । वधाकर इस प्रकार कहता है -
हे तात ! आप अन्य समय मुझे आता देखकर आदर करते, जानते, यावत् मेरे मस्तक को सूंधते थे और आसन पर बैठने के लिए निमंत्रित करते थे, किन्तु तात ! आज आप मुझे आदर नहीं दे रहे हैं, यावत् आसन पर बैठने के लिए निमंत्रित नहीं कर रहे हैं और मन का संकल्प नष्ट होने के कारण कुछ चिन्ता कर रहे हैं तो इसका कोई कारण होना चाहिए । तो हे तात ! आप इस कारण को छिपाए बिना, इष्टप्राप्ति में शंका क्खे बिना, अपलाप किये विना, दबाये विना, जैसा का तैसा, सत्य संदेहरति कहिए । तत्पश्चात् मैं उस कारण का पार पाने का प्रयत्न करूंगा। अभयकुमार के इस प्रकार कहने पर श्रेणिक राजा ने अभयकुमार सेपुत्र ! तुम्हारी छोटी माता धारिणी देवी की गर्भस्थिति हुए दो मास बीत गए और तीसरा मास चल रहा है । उसमें दोहद-काल के समय उसे इस प्रकार का दोहद उत्पन्न हुआ है-वे माताएँ