________________
६४
आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद
सबका त्याग कर दिया । जल आदि की क्रीडा और चौपड़े आदि खेलों का परित्याग कर दिया । वह दीन, दुःखी मनवाली, आनन्दहीन एवं भूमि की तरफ दृष्टि किये हुए बैठी रही । उसके मन का संकल्प - हौसला नष्ट हो गया । वह यावत् आर्त्तध्यान में डूब गई ।
उस धारिणी देवी का अंगपरिचारिकाँ धारिणी देवी को जीर्ण-सी एवं जीर्ण शरीरवाली, यावत् आर्तध्यान करती हुई देखती हैं । इस प्रकार कहती हैं- 'हे देवानुप्रिय ! तुम जीर्ण जैसी तथा जीर्ण शरीरखाली क्यों हो रही हो ? यावत् आर्त्तध्यान क्यों कर रही हों ? धारिणी देवी अंगपरिचारिका आभ्यंतर दासियों द्वारा इस प्रकार कहने पर उनका आदर नहीं करती और उन्हें जानती भी नहीं उनकी बात पर ध्यान नहीं देती । वह मौन ही रहती है । तब वे अंगपरिचारिका आभ्यन्तर दासियाँ दूसरी बार तीसरी बार कहने लगीं क्यों तुम जीर्ण-सी, जीर्ण शरीर वाली हो रही हो, यहाँ तक कि आर्त्तध्यान कर रही हो ?
तत्पश्चात् धारिणी देवी अंगपरिचारिका आभ्यन्तर दासियों द्वारा दूसरी बार और तीसरी बार भी उस प्रकार कहने पर न आदर करती है और न जानती हैं, अर्थात् उनकी बात पर ध्यान नहीं देती, न आदर करती हुई और न जातनी हुई वह मौन रहती है । तत्पश्चात् वे अंगपरिचारिका आभ्यन्तर दासियाँ धारिणी देवी द्वारा अनाहत एवं अपरिज्ञानत की हुई, उसी प्रकार संभ्रान्त होती हुई धारिणी देवी के पास से निकलती हैं और निकलकर श्रेणिक राजा के पास आती हैं । दोनों हातों को इकट्ठा करके यावत् मस्तक पर अंजलि करके जय-विजय से धाती हैं और वधा कर इस प्रकार कहती हैं - 'स्वामिन्! आज घारिणी देवी जीर्ण जैसी, जीर्ण शरीर वाली होकर यावत् आर्त्तध्यान से युक्त होकर चिन्ता में डूब रही हैं ।'
[२०] तब श्रेणिक राजा उन अंगपरिचाकिओं से यह सुनकर, मन में धारण करके, उसी प्रकार व्याकुल होता हुआ, त्वरा के साथ एवं अत्यन्त शीघ्रता से जहाँ धारणी देवी थी, वहाँ आता है । आकर धारिणी देवी को जीर्ण-जैसी, जीर्ण शरीर वाली यावत् आर्त्तध्यान से युक्त देखता है । इस प्रकार कहता है- 'देवानुप्रिय ! तुम जीर्ण जैसी, जीर्ण शरीर वाली यावत् आर्त्तध्यान से युक्त होकर क्यों चिन्ता कर रही हो ?' धारिणी देवी श्रेणिक राजा के इस प्रकार कहने पर भी आदर नहीं करती-उत्तर नहीं देती, यावत् मौन रहती है । तत्पश्चात् श्रेणिक राजा ने धारिणी देवी से दूसरी बार और फिर तीसरी बार भी इसी प्रकार कहा । धारिणी देवी श्रेणिक राजा के दूसरी बार और तीसरी बार भी इस प्रकार कहने पर आदर नहीं करती और नहीं जानती - मौन रहती है । तब श्रेणिक राजा धारिणी देवी को शपथ दिलाता है और शपथ दिलाकर कहता है - 'देवानुप्रिय ! क्या मैं तुम्हारे मन की बात सुनने के लिए अयोग्य हुँ, जिससे अपने मन में रहे हुए मानसिक दुःख को छिपाती हो ?'
तत्पश्चात् श्रेणिक राजा द्वारा शपथ सुनकर धारिणी देवी ने श्रेणिक राजा से इस प्रकार कहा- स्वामिन् ! मुझे वह उदार आदि पूर्वोक्त विशेषणों वाला महास्वप्न आया था । उसे आए तीन मास पूरे हो चुके हैं, अतएव इस प्रकार का अकाल- मेघ संबंधी दोहद उत्पन्न हुआ है कि वे माताएँ धन्य हैं और वे माताएँ कृतार्थ हैं, यावत् जो वैभार पर्वत की तलहटी में भ्रमण करती हुई अपने दोहद को पूर्ण करती हैं । अगर मैं भी अपने दोहद को पूणई करूं तो धन्य होऊँ । इस कारण हे स्वामिन् ! मैं इस प्रकार के इस दोहद के पूर्ण न होने से जीर्ण जैसी, जीर्ण शरीरखाली हो गई हूँ; यावत् आर्त्तध्यान करती हुई चिन्तित हो रही हूँ । स्वामिन् ! जीर्ण-सी