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ज्ञाताधर्मकथा-१/-/१/२१
के समीप प्रकट होना योग्य है ।' देव इस प्रकार विचार करके ईशानकोण में जाता है और वैक्रियसमुद्घात करता है, अर्थात् उत्तर वैक्रिय शरीर बनाने के लिए जीव-प्रदेशों को बाहर निकालता है । संख्यात योजनों का दंड बनाता है । वह इस प्रकार
कर्केतन रत्न वज्र रत्न वैडूर्य रत्न लोहिताक्ष रत्न मसारगल्ल रत्न हंसगर्भ रत्न पुलक रत्न सौगंधित रत्न ज्योतिरस रत्न अंक रत्न अंजन रत्न रजत रत्न जातरूप रत्न अंजनपुलक रत्न स्फटिक रत्न और रिष्ट रत्न-इन रत्नों के यथा-बादर अर्थात् असार पुद्गलों का परित्याग करता हैं; परित्याग करके यथासूक्ष्म पुद्गलों को ग्रहण करता है । उत्तर वैक्रिय शरीर बनाता है । फिर अभयकुमार पर अनुकंपा करता हुआ, पूर्वभव में उत्पन्न हुई स्नेहजनित प्रीति और गुणानुराग के कारण वह खेद करने लगा । फिर उस देव ने उत्तम रचनावाले अथवा उत्तम रत्नमय विमान से निकलकर पृथ्वीतल पर जाने के लिए शीघ्र ही गति का प्रचार किया, उस समय चलायमान होते हुए, निर्मल स्वर्ण के प्रतर जैसे कर्णपूर और मुकुट के उत्कट आडम्बर से वह दर्शनीय लग रहा था । अनेक मणियों, सुवर्ण और रत्नों के समूह से शोभित और विचित्र रचनावाले पहने हुए कटिसूत्र से उसे हर्ष उत्पन्न हो रहा था । हिलते हुए श्रेष्ठ और मनोहर कुण्डलों के उज्जवल हुई मुख की दीप्ति से उसका रूप बड़ा ही सौम्य हो गया । कार्तिकी पूर्णिमा की रात्रि में, शानि और मंगल के मध्य में स्थित और उदयप्राप्त शारदनिशाकर के समान वह देव दर्शकों के नयनों को आनन्द दे रहा था । तात्पर्य यह कि शनि और मंगलग्रह के समान चमकते हुए दोनों कुण्डलों के बीच उसका मुख शरद ऋतु के चन्द्रमा के समान शोभायमान हो रहा था । दिव्य औषधियों के प्रकाश के समान मुकुट आदि के तेज से देदीप्यमान, रूप सो मनोहर, समस्त ऋतुओं की लक्ष्मी से वृद्धिंगत शोभा वाले तथा प्रकृष्ट गंघ के प्रसार से मनोहर मेरुपर्वत के समान वह देव अभिराम प्रतीत होता था । उस देव ने ऐसे विचित्र वेष की विक्रिया की। असंख्य-संख्यक और असंख्य नामों वाले द्वीपों और समुद्रों के मध्य में होकर जाने लगा। अपनी विमल प्रभा से जीवलोक को तथा नगरवर राजगृह को प्रकाशित करता हुआ दिव्या रूपधारी देव अभयकुमार के पास आ पहुँचा ।
[२२] तत्पश्चात् दस के आधे अर्थात् पाँच वर्ण वाले तथा धुंघरूंवाले उत्तम वस्त्रों को धारण किये हुए वह देव आकाश में स्थित होकर बोला- 'हे देवानुप्रिय ! मैं तुम्हारा पूर्वभव का मित्र सौधर्मकल्पवासी महान् ऋद्धि का धारक देव हूं ।' क्योंकि तुम पौषधशाला में अष्टमभक्त तप ग्रहण करके मुझे मन में रखकर स्थित हो अर्थात् मेरा स्मरण कर रहे हो, इसी कारण हे देवानुप्रिय ! मैं शीघ्र यहाँ आया हूं । हे देवानुप्रिय ! बताऔ तुम्हारा क्या इष्ट कार्य करूँ ? तुम्हें क्या हूँ ? तुम्हारे किसी संबंधी को क्या दूँ ? तुम्हारा मनोवांछित क्या है ? तत्पश्चात् अभयकुमारने आकाश में स्थित पूर्वभव के मित्र उस देव को देखा । वह हृष्ट-तुष्ट हुआ । पौषध को पारा । फिर दोनों हाथ मस्तर पर जोड़कर इस प्रकार कहा-'हे देवानुप्रिय! मेरी छोटी माता धारिणी देवी को इस प्रकार का अकाल-दोहद उत्पन्न हुआ है कि वे माताएँ धन्य हैं जो अपने अकाल मेघ-दोहद को पूर्ण करती हैं यावत् मैं भी अपने दोहद को पूर्ण करूँ ।' इत्यादि पूर्व के समान सब कथन यहाँ समझ लेना चाहिए । 'सो हे देवानुप्रिय ! तुम मेरी छोटी माता धारिणी के इस प्रकार के दोहद को पूर्ण कर दो ।'
तत्पश्चात् वह देव अभयकुमार के ऐसा कहे पर हर्षित और संतुष्ट होकर अभयकुमार